शब्दों के नर्तन से शापित अंतर्मन शिथिलाया लिखने को तो बहुत लिखा पर कुछ लिखना बाकी है
रुग्ण बाग में पंछी घायल रक्त वमन जब बहता विभत्स में शृंगार रसों की लुकाछिपी खेलाई विद्रोही दिल रोता रहता दर्द बहुत ही सहता फिर भी लफ़्ज़ों को निचोड़ कर बदबू ही फैलाई खाद समझ नाले से मैंने कीचड़ तो बिखराया
किन्तु हाय! गन्ध फूलों की बिखराना बाकी है।
साफ करुंगा वस्त्र भाव के बचपन में कुछ सोचा किन्तु आज तक मैले कपड़े धूल हटा ना पाया दुर्गंध भरे, बिखरे बालों को कितना भी नोचा निर्मल करे सुभाये ऐसा कुछ भी लिख ना पाया ज्योत जलाने चला भले ही अंधकार में डूबा
अब तक घने तिमिर की परतें खुल जाना बाकी है।
कागद ने खुश होकर नभ के रहस्य खूब उभारे स्याही में डूबा तो, अचरज पंछी खुद को पाया ले आई आकाश में कलम दुबका डर के मारे उड़ ना पाया मुक्त हवा में गड्ढे में घुस आया बहुत किया डबरे में छपछप थक कर यों पछताया
सागर से उठती लहरों को छू लेना बाकी है
- हरिहर झा, ऑस्ट्रेलिया
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