अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल

संत कबीरदास के दोहे 

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 कबीरदास | Kabirdas

संत कबीर के दोहे 

सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय। 
सात समुद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय॥ 

माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं। 
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं॥ 

एक सबद सुखरास है, एक सबद दुखरास। 
एक सबद बंधन कटै, एक सबद गल फाँस॥ 

कुसल कुसल ही पूछते, जग में रहा न कोय। 
जरा मुई न भय मुआ, कुसल कहाँ ते होय॥ 

माटी कहै कुम्हार को, तू क्या रूँदै मोहि। 
इक दिन ऐसा होइगा, मैं रूँदूँगी तोहि॥

एक सीस का मानवा, करता बहुतक हीस। 
लंकापति रावन गया, बीस भुजा दस सीस॥ 

माली आवत देखि फै, कलियाँ कहें पुकारि। 
फूली फूली चुनि लिये, काल्हि हमारी बारि॥ 

पिय का मारग सुगम है, तेरा चलन अबेड़ा। 
नाच न जानै बापुरी, कहै आँगना टेढ़ा॥ 

चींटी चावल लै चली, बिच में मिलि गइ दार। 
कह कबीर दोउ ना मिले, इक ले दूजी डार॥ 

साई इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय। 
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥ 

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिये ज्ञान। 
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ 

केसन कहा बिगारिया, जो मूँड़ौ सौ बार। 
मन को क्यों नहीं मुँडिये, जा में विषय बिकार॥ 

रसहिं छाड़ि छोही गहै, कोल्हू परतछ देख। 
गर्दै असारहिं सार तजि, हिरदे नाहिं बिबेक॥ 

मरिये तो मरि जाइये, छूटि परे जंजार। 
ऐसा मरना को मरै, दिन में सौ सौ बार॥

तेरा साई तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास। 
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर फिरि ढूँढे घास॥ 

हंसा बगुला एक सा, मानसरोवर माँहि। 
बगा ढंढोरै माछरी, हंसा मोती खाँहि॥

दुर्बल को न सताइये, जा की मोटी हाय। 
बिना जीव की स्वास से, लोह भसम ह्वै जाय॥ 

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय। 
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय॥ 

माँगन मरन समान है, मत कोइ माँगौ भीख। 
माँगन तें मरना भला, यह सतगुरु की सीख॥ 

पानी मिले न आप को, औरन बकसत छीर। 
आपन मन निश्चल नहीं, और बँधावत धीर॥ 

साँचे कोइ न पतीजई, झूठे जग पतियाय। 
गली गली गोरस फिरै, मदिरा बैठि बिकाय॥ 

सौ जोजन साजन बसें, मानों हृदय मंझार। 
कपट सनेही आँगने, जानु समुंदर पार॥ 

करगस सम दुर्जन बचन, रहें संत जन टारि। 
बिजुली परै समुद्र में, कहा सकेंगी जारि॥ 

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। 
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय॥ 

चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। 
जिन को कछू न चाहिये, सोई साहंसाह॥

-कबीर

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