जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

देश की वेदी पर

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 डॉ॰ धनीराम प्रेम | ब्रिटेन

देश की वेदी पर

[ डॉ धनी राम प्रेम की यह कहानी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की प्रेम-कहानी है। बदलते रिश्तों और मानव के स्वाभाविक मनोविज्ञान को उद्घाटित करती एक अद्भुत त्रिकोणीय प्रेम कहानी। ]

वह भिखारिणी थी। उसका कोई नाम नहीं था; न तो वह स्वयं अपना नाम जानती थी और न और दूसरे लोग। विएमा के प्रातर मुहल्ले में वह अधिक दिखाई दिया करती थी, इसीलिए लोग उसे प्रातर की भिखारिणी के नाम से पुकारते थे। वह युवती थी, उसके मुख पर माधुर्य था; परन्तु जिस प्रकार मिश्री का मिठास अरहर की दाल में पड़ कर नष्ट हो जाता है, या छिप जाता है, इसी प्रकार उसकी माधुरी दरिद्रता के कारण पैदा हुई चिंताओं में निहित रहती थी।

आगे-पीछे उसका कोई न था। ऐसा भी नहीं कि जिसे वह अपना समझ भी सके। उसका कोई घर भी न था। वह यह न जानती थी कि वह कहाँ उत्पन्न हुई थी और न उसे इस बात का ही ज्ञान था कि वह कहाँ धराशाई होगी। संसार में रहते हुए भी वह संसार से बिल्कुल अपरिचित थी।

उसका कोई सहायक भी न था, जो कभी-कभी उससे कुछ सहानुभूति ही दिखा दे। वह, जो कुछ मिल जाता, उसे खा लेती, जो कुछ मिल जाता, उसे पहन लेती। लोगों की उसके विषय में अनेकों धारणाएँ थीं और उन्हीं धारणाओं के आधार पर लोगों के हृदयों और घरों में उसके लिए स्थान था। कोई उसे मायाविनी समझता और इसीलिए उसका तिरस्कार करता। कोई उसे वेश्या समझता और इसीलिए उससे घृणा करता। कोई उसे पागल समझता और इसीलिए उसकी हँसी उड़ाता। बदनामी--और वह भी असत्य--दरिद्रता की सगी बहन है। धन सारे दोषों पर पर्दा डाल देता है, दरिद्रता गुणों को भी दोष के रूप में दिखाती है। दरिद्रता वह दर्पण है, जिसका शीशा समतल नहीं होता और जिसमें प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति का रूप विकृत दिखाई पड़ता है।

(2)

अर्द्धरात्रि का समय था। रिंगस्नास-स्थित औपरा में खेल समाप्त हो चुका था। लोग लौटकर अपने घरों को जा रहे थे। औपरा से लौटे हुओं में दो सिपाही भी थे। सैनिकों की वर्दी पहने दोनों घर की ओर जाने के लिए एक छोटी गली में मुड़े। उन्हें एक चीख सुनाई दी। सामने से एक बालिका भागी हुई आ रही थी। वह थी भिखारिण। उसके पीछे एक व्यक्ति शराब के नशे में चूर दौड़ रहा था। दोनों सैनिक उस ओर दौड़े। उन्हें देख कर शराबी एक ओर को भाग गया। भिखारिण वहाँ खड़ी रही। सैनिक उसके पास पहुँचे तो वह दौड़ने के कारण लम्बी-लम्बी श्वासें ले रही थी। सैनिकों ने जाकर उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और पास ही पड़ी हुई एक बेंच पर उसे बिठा दिया।

'वार तो नहीं कर दिया था उसने?-–एक सैनिक ने पूछा।

'वार तो करता, परन्तु आप लोग आ गए।'

'तुम प्रसन्न नहीं हो, कि हम लोगों ने तुम्हारी रक्षा की?”

'प्रसन्न तो हूँ, परन्तु यह नहीं जानती कि आप लोग कौन हैं।"

'क्या रक्षक के विषय में न जानने से रक्षा का महत्व कम हो जाता है?'

'कभी कम हो जाता है, कभी बढ़ जाता है।'

'यह क्यों?'

'रक्षा के उद्देश्य से।'

'रक्षा के उद्देश्य भी भिन्न होते हैं?"

'क्यों नहीं। कोई डूबते हुए को तालाब से इसी लिए निकालता है कि उसे एक अन्धकूप में ढकेल दे। कोई अन्धकूप से इसलिए निकालता है कि उसे प्रकाश में ला बिठाए।'

'हमारा उद्देश्य समझती हो?'

'बिना आपको जाने?”

'परिचय करा दें?'–-एक सैनिक ने कहा।

'अच्छा होगा।'

मेरा नाम कार्ल है। मैं ऑस्ट्रियन सेना में एक अफ़सर हूँ। कुछ दिन हुए मैं विएना में आया हूँ और तुम्हें देख कर प्रसन्न ही हूँ।"

'और आप?' कह कर भिखारिण ने दूसरे सैनिक की ओर देखा।

'मेरा नाम पीट्रोविच है। मैं रशियन सेना में एक अफसर हूँ। कुछ दिनों की छुट्टी लेकर मैं ऑस्ट्रिया आया हूँ और अपने परम मित्र कार्ल के साथ विएना की सैर कर रहा हूँ। मैं भी आपको देख कर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।'

जिस समय पोट्रोविच यह कह रहा था, उसके नेत्र भिखारिण की ओर गड़े हुए थे। उस दृष्टि में जो भाव थे, वे भिखारिण को अच्छे न लगे। भिखारिए ने कुछ कहा नहीं, परन्तु वह दृष्टि उसके हृदय में अंकित हो गई।

'तुम भी अपने विषय में कुछ बतलाओ।"--कार्ल बोला।

'क्या करेंगे पूछकर?'

'कुछ हानि है?'

'आप जान कर पछताएँगे।'

'क्यों?'

'क्योंकि मेरा परिचय कुछ है ही नहीं।'

'कुछ तो होगा ही।'

'कुछ होता तो बता न देती!"

'नाम क्या है?'

'मुझे पता नहीं।'

उत्तर सुन कर दोनों सैनिक हँसने लगे।

'आप हँसते क्यों हैं?'-–भिखारिण ने पूछा।

'तुम्हारे उत्तर पर। भला कोई ऐसा भी व्यक्ति है, जिसका नाम न हो?”

'मैं ही एक ऐसी हूँ।'

'पुकारी किस प्रकार जाती हो?'

'भिखारिण के नाम से।'

'भिखारिण?"

'हाँ! इस भाग में सब यही कह कर मुझे पुकारते हैं।"

यह सुन कर दोनों सैनिक हँस कर भिखारिण का मज़ाक़ बनाने लगे। भिखारिण बिना कुछ कहे चल दी। सैनिक कुछ देर देखते रहे। पीट्रोविच अब भी हँस रहा था। कार्ल ने कुछ देर विचारा और कहा--पीट्रोविच, हँसी रोक दो। हमने यह बड़ा अपराध किया है। वह बुरी लड़की नहीं है।

'यह सब बातें व्यर्थ हैं।"

'मैं गम्भीर हूँ, पीट्रोविच!"

"फिर क्या करोगे?"

'उससे क्षमा माँगेंगे?"

'माँगेंगे? मैं नहीं।'

'तो मैं जाता हूँ।"

कार्ल आगे बढ़ा। पोट्रोविच कुछ देर देखता रहा, वहाँ से हटा नहीं। सामने सड़क पर भिखारिण बढ़ी चली जा रही थी, कार्ल ने दौड़ कर उसे पकड़ा।

'और मज़ाक बनाओगे? इसी उद्देश्य से मेरी रक्षा की थी? सभ्य समाज के सपूत!'-- भिखारिण ने कहा।

'मज़ाक बनाने नहीं आया, भिखारिण, क्षमा माँगने आया हूँ।'

'क्षमा क्यों माँगते हो? यह तो नई बात है। आज तक सैंकड़ों पुरुषों ने भिखारिण को मज़ाक़, विनोद, तिरस्कार, सन्देह की दृष्टि से देखा है, परन्तु किसी ने क्षमा नहीं माँगी।'

'यह उनका अत्याचार है। परन्तु मैं तुमसे क्षमा अवश्य मागूँगा। नहीं तो मेरी आत्मा को बड़ा क्लेश होगा।'

'अच्छा, क्षमा कर दिया!"--भिखारिण ने हँस कर कहा।

कार्ल भी हँस दिया, और उसने अपना हाथ आगे बढ़ा कर कहा--शेक!

भिखारिण ने हाथ मिलाया। 'अब हम मित्र हैं।' कार्ल ने कहा।

'भिखारिण के मित्र?'--भिखारिण ने पूछा।

'हाँ।'

इसने ही में पोट्रोचिच भी वहाँ आ गया। वह यह सब कुछ देख रहा था। कार्ल को भिखारिण से घनिष्ठता बढ़ाते हुए देख कर उससे भी न रहा गया। वह क्यों घाटे में रहे और भिखारिण तथा कार्ल की दृष्टि में बुरा बने। उसने आते ही कहा—'मुझे क्षमा करना, भिखारिण! मैं देर से आया हूँ।‘

'दुःख प्रकाशित करने?'

"हाँ।"

'सोच-विचार के बाद?'

'हाँ। क्या वे बातें भुला दी जाएँगी?”

सबने 'हाँ' कहा और हँसने लगे।

'तुम्हें घर पहुँचा आवें?'-–कार्ल ने कहा।

'भिखारिणी का घर कहाँ?"

'रात को कहाँ रहती हो?'

'कोई निश्चित स्थान नहीं है। जहाँ जगह देखी, पड़ रही।‘

'अब कहाँ जाओगी?’

'ऐसी ही जगह की खोज में।'

कार्ल और पीट्रोविच दोनों कुछ देर सोचते रहे। फिर कार्ल बोला—'पीट्रोविच, यदि इन्हें होटल ले जाया जाए तो कैसा?’

'होटल में, किस लिए?’-- भिखारिण ने पूछा।

'डरती हो?'

"नहीं।"

'तो फिर आपत्ति कैसी?"

'आपको इतना कष्ट क्यों दूँ?'

'अब तो मित्रता के नाते इस बात का तुम्हें अधिकार है।'

'कब तक?'

'कल तक। फिर एक घर ले लेंगे। तुम घर की देखरेख करोगी और हम उसमें रहेंगे। स्वीकार है?'

भिखारिण ने कुछ देर कार्ल की ओर देखा, कुछ देर पीट्रोविच की ओर। फिर कार्ल की ओर एक कृतज्ञता की दृष्टि डालते हुए उसने कहा—'स्वीकार है, क्योंकि...'

'क्योंकि...?’–-कार्ल ने पूछा। और साथ ही दोनों मित्र उत्तर के लिए उसके मुख की ओर देखने लगे।

'आप लोग इतने दयालु हैं।'--कुछ देर सोच कर भिखारिण ने कहा। उसने किसी एक का नाम नहीं लिया था, अतः दोनों को उस उत्तर से कुछ सन्तोष नहीं हुआ, परन्तु उत्तर देते समय भिखारिण ने जिस प्रकार कार्ल की ओर देखा, उससे कार्ल को प्रसन्नता हो गई।

'हाँ, तुम्हें किस नाम से पुकारेंगे?'–-चलते-चलते कार्ल ने पूछा।

'भिखारिण।"

'अब नहीं।'

'फिर?'

'कोई नाम रक्खेंगे। क्यों पेट्रो?’

'तुम्हीं रक्खो। मैं तो आस्ट्रियन नाम जानता ही नहीं।'--पीट्रोविच ने कहा।

'फ्रित्सी! कहो, कैसा रहेगा?'--कार्ल ने पूछा।

दोनों ने अपनी सम्मति दे दी।

(3)

कार्ल, पीट्रोविच तथा फ्रित्सी तीनों उस घर में रहने लगे। फ्रित्सी घर के काम-काज में इतनी निपुण हो गई कि मानो वह सदा से उसी प्रकार के वातावरण में रही थी। वह घर की सफाई करती, भोजन बनाती, दोनों मित्रों के वस्त्रों का हिसाब रखती, हर प्रकार से उनकी सेवा करती। उसे, एक आधार मिल जाने के कारण, काम करने में एक अभूतपूर्व आनन्द की प्राप्ति होती थी। वह कार्ल और पीट्रोविच की दयालुता से दबी हुई थी और उस भार को हलका करने के लिए वह सदा इस बात की चिन्ता रखती थी कि उन दोनों को किसी प्रकार का दुःख न होने पाए। उनके लिए छोटे-छोटे काम करने में भी उसे अपार सुख होता था। उसने अपने रहन-सहन, बोल-चाल में भी इतना बड़ा परिवर्तन कर लिया था कि कोई कह नहीं सकता था कि यह वही प्रातर की भिखारिणी है। कार्ल ने उसे पढ़ने का शौक़

लगा दिया था। वह कार्ल से जर्मन पढ़ती थी और पीट्रोविच से रशियन। कभी-कभी जब कार्ल और पीट्रोचिच झगड़ते तो वह माता का काम करती। उन्हें डाँटती, समझाती, आँसू पोंछती और उनमें फिर से मेल करा देती थी। फ्रित्सी पीट्रोविच को इतना पसन्द नहीं करती थी, जितना कार्ल को; फिर भी वह दोनों को समान दृष्टि से देखती थी।

कार्ल और पीट्रोविच दोनों ही फ्रित्सी को प्रेम की दृष्टि से देखने लगे थे। फ्रित्सी चाहे जो कुछ रही थी, परन्तु अब वह एक आदर्श बालिका थी। दोनों को उसे प्राप्त करने की आशा थी, परन्तु कोई इस विषय में दूसरे से कुछ भी न कहता था। न तो कार्ल को यह पता था कि पीट्रोविच फ्रित्सी को इस दृष्टि से देखता था और न पीट्रोविच इस बात को जानता था कि कार्ल फ्रित्सी को प्रेम करता था। न उनमें से किसी ने अभी तक अपनी इच्छा फ्रित्सी को ही जताई थी।

कुछ समय इस प्रकार निकल गया। यूरोप के आकाश में महायुद्ध के बादल मंडराने लगे। ऑस्ट्रिया और सर्बिया में युद्ध छिड़ गया और रूस ने सर्बिया का पक्ष लिया। युद्ध की घोषणा होते ही सारे देश में हलचल मच गई। जहाँ-जहाँ सैनिक लोग थे, वहीं-वहीं उनके पास तार पहुँचने लगे कि शीघ्र ही वे सेनाध्यक्ष के यहाँ अपनी हाजिरी दें।

कार्ल के मकान में नीचे फ्रित्सी रहती थी और ऊपर अलग-अलग दो कमरों में कार्ल और पीट्रोविच । एक समय पर ही तार वाले ने एक तार पीट्रोविच को दिया और दूसरा कार्ल को । उस समय रात्रि थी । फ्रित्सी ने जाग कर ही तार वाले से वे तार लिए थे और दोनों मित्रों के कमरे में पहुँचाए थे । पोट्रोविच ने तार पढ़ा। उसे ऑस्ट्रिया छोड़ कर रूस के सीमान्त प्रदेश में शीघ्र पहुँचने का आदेश था । उसने घड़ी देखी, गाड़ी में दो घण्टे थे। वह सामान बाँध कर फ्रित्सी और कार्ल से मिल सकता था। फ्रित्सी से वह विशेष रूप से मिलना चाहता था। वह आज फ्रित्सी के सामने अपना प्रेम प्रकट करना चाहता था और चाहता था उससे विवाह की सम्मति प्राप्त करना और उसे अपने साथ रूस ले जाना। उसे फ्रित्सी की सम्मति की विशेष आशा नहीं थी; फिर भी वह निराश न था । उसे यह पता न था कि फ्रित्सी के हृदय में कार्ल के प्रति कैसे भाव हैं। उसने स्वयं मुस्कुराते हुए सामान बाँधना शुरू कर दिया।

कार्ल ने भी तार पढ़ा। उसे भी सेनाध्यक्ष के यहाँ उपस्थित होने का आदेश था। वह तार पढ़ कर घड़ी देखना और गाड़ी का समय ठीक करना और सामान बाँधना सब कुछ भूल गया। उसके सामने केवल एक समस्या थी। फ्रित्सी का क्या होगा, यही विचार उसके मस्तिष्क को घेरे हुए था। उसके कारण फ्रित्सी वहाँ आकर रही थी। उसीने उसे इस योग्य बनाया था। अब वह उसे इस प्रकार निस्सहाय नहीं छोड़ सकेगा। वह उससे विवाह ही क्यों न कर ले और उसे अपने ग्राम में छोड़ कर, युद्ध पर चला जाए? वह उसे प्रेम करता ही था। उसने भाग्य परीक्षा करनी चाही। लबादा पहन कर वह नीचे पहुँचा। फ्रित्सी अभी सोई न थी, उसके कमरे में प्रकाश था। कार्ल ने पुकारा--फ्रित्सी!

 

'कार्ल! - कमरे में से फ्रित्सी ने पुकारा।

'हाँ, मैं हूँ कार्ल, फ्रित्सी ! भीतर आ जाऊँ?'

'आओ!"

फ्रित्सी ने द्वार खोल दिया । कार्ल भीतर जाकर कुर्सी पर बैठ गया।

'कहो कार्ल!"--फ्रित्सी ने पूछा।

'यह पढ़ो।' कह कर कार्ल ने तार उसके हाथ में दे दिया।

'युद्ध के लिए!  ओह, भगवान!" फ्रित्सी ने तार पढ़ कर कहा।

'क्यों, युद्ध के नाम से इतना भय, फ्रित्सी?"

'नहीं कार्ल, युद्ध के नाम से नहीं, किसी और विपत्ति से भी नहीं। डर मैंने सीखा नहीं है । परन्तु मैं कुछ और सोच रही थी।'

'अपने विषय में?'

'नहीं।'

'पीट्रो के विषय में?'

'नहीं ।

'फिर?'

'कार्ल के विषय में।'

'क्यों?'

'यह न पूछो, कार्ल! कभी इसके बताने के लिए समय मिलेगा। अभी तो जाओ, युद्ध के लिए। ऑस्ट्रिया को तुम्हारी सेवाओं की, तुम्हारे बल की, तुम्हारी विद्या की और तुम्हारे शरीर की आवश्यकता है।'

'तुम्हारा क्या होगा, फ्रित्सी?'

'कुछ नहीं, कार्ल, मेरी चिन्ता न करो। मैं तो उसी जगत में फिर चली जाऊँगी, जहाँ से आई थी।'

'भिखारिण होकर?'

'हाँ।'

'अब उस जगत में रह सकोगी?'

'हाँ, रह सकूँगी - इन महीनों की मधुर स्मृतियों के  सहारे।'

'फ्रित्सी।'

'कार्ल !"

'ऐसा न करो।'

'फिर?'

'मेरे साथ चलो।'

'कहाँ ?'

'मेरे ग्राम को।'

'इस प्रकार ?'

'नहीं।'

'तो?'

'ज़रा गम्भीर होकर सुन सकोगी ?'

'हाँ, कहो।'

'साहस नहीं होता।'

'कह भी दो। देर न करो।'

'मेरी... स्त्री... होकर । कह कर कार्ल ने सिर नीचा कर लिया ।

'कार्ल ! - कह कर फ्रित्सी उसकी ओर देखने लगी ।

'मैंने अब तक तुम्हें न बताया था,फ्रित्सी ! परन्तु मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।"

'और मैं भी कार्ल !”

'फ्रित्सी ! - कार्ल चिल्ला उठा और अपनी मत्त आँखें फ्रित्सी की आँखों के सामने ले गया। उसके हाथों में फ्रित्सी के हाथ थे।

'स्वीकार है ?' उसने पूछा ।

फ्रित्सी ने सिर 'हाँ' में हिला दिया ।

कार्ल के वक्षस्थल में फ्रित्सी छपी हुई थी कि पीट्रोविच आ गया । कार्ल और फ्रित्सी को इस प्रकार अकेले में देख कर, उसकी क्रोधानल प्रज्वलित हो गई । उसका मुख तमतमा गया। वह शायद इसे कार्ल के लिए अनधिकार चेष्टा समझता था, इसलिए वह कार्ल का नाम लेकर तेज़ी से बोला- कार्ल ! तुम्हारी यह धृष्टता !-

'धृष्टता नहीं अधिकार, पोट्रोविच सुख-संवाद सुनने के लिए तुम ठीक समय पर आए हो ।' कार्ल ने हँस कर उत्तर दिया ।

'सुख-संवाद कैसा ?'

'मैं और फ्रित्सी विवाह करने जा रहे हैं।'

'विवाह ?'

'हाँ।'

'फ्रित्सी का और तुम्हारा?"

'हाँ।'

'यह तुम्हें भ्रम है, कार्ल । तुम नहीं जानते कि फ्रित्सी से विवाह की स्वीकृति लेने ही मैं आया हूँ ।'

'इसका निर्णय तो फ्रित्सी ने कर दिया।'

'कर कैसे दिया ? बिना मुझसे मिले?"

'तुम्हारी उसमें क्या आवश्यकता थी?

'मैं फ्रित्सी को प्रेम करता हूँ ।'

'फ्रित्सी को भी तो प्रेम करने का अधिकार है।"

'है।'

'फ्रित्सी तुम्हें प्रेम नहीं करती।"

पीट्रोविच ने फ्रित्सी की ओर देखा और पूछा--'फ्रित्सी, क्या कार्ल को ?'

'हाँ, पीट्रो ।'

'यह मुझे पता न था। मैं धोखे में मारा गया और इसीलिए तुम्हें हाथ से खो रहा हूँ।'

'धोखा नहीं, पीट्रो, बात बिल्कुल ही स्पष्ट है । एक स्त्री दो पुरुषों की सेविका हो सकती है, परन्तु उसके प्रेम पर केवल एक व्यक्ति का ही अधिकार हो सकता है। वह अधिकार मैं कार्ल को दे चुकी हूँ ।'

'अच्छा फ्रित्सी, रक्खो अपने कार्ल को और उसके क्षुद्र प्रेम को !" - कह कर पीट्रोविच द्वार की ओर जाने लगा ।

'मुझे दुःख है, पीट्रो !'- फ्रित्सी ने कहा ।

'सब ठीक है । "- पीट्रो ने उत्तर दिया । वह अभी द्वार तक न पहुँचा था कि कार्ल ने उसको पुकारा । पीट्रो खड़ा हो गया ।

'अन्तिम बार मुझसे न मिलोगे, पीट्रो ?'– कार्ल ने बड़े करुण स्वर में कहा ।

'तुम से मिलूँगा ? अब हमारा तुम्हारा मिलन उस समय होगा जब रूस की फौजें ऑस्ट्रिया के नगरों को ध्वंस कर रही होंगी और जब तुम एक क़ैदी की भाँति मेरे सामने लाए जानोगे ।'

वह चला गया । कार्ल और फ्रित्सी कुछ समय तक स्तब्ध बैठे रहे ।

(4)

कार्ल और  फ्रित्सी का विवाह उसी दिन हो गया । कार्ल ने अपने ग्राम में  फ्रित्सी को छोड़ दिया और वह युद्ध में लड़ने के लिए चल दिया । कार्ल अकेला था, उसके माता-पिता का देहान्त हो चुका था । अतः फ्रित्सी को घर में अकेले ही रहना पड़ा ।

 फ्रित्सी, इस प्रकार कुछ दिनों तक ही रही थी कि ग्राम में रशियन सेना के आक्रमण की बात फैल गई।' रूसी लोग आ रहे हैं, रूसी लोग आ रहे हैं' की ध्वनि ही चारों ओर सुनाई देती थी। कुछ व्यक्तियों ने ग्राम को छोड़ दिया था और वे विएना चले गए थे ।  फ्रित्सी

कहीं नहीं जा सकती थी। न तो वह कार्ल से इसके लिए आज्ञा ही प्राप्त कर सकती थी, न कहीं जाने के लिए उसके पास स्थान ही था ।

कुछ दिनों की प्रतीक्षा के बाद  फ्रित्सी को कार्ल का एक पत्र मिला--

"प्यारी  फ्रित्सी,

ग्राम पर रूसी सेना का आक्रमण होने वाला है। हमारी सेना की एक टुकड़ी उधर भेजी जा रही है। परन्तु फिर भी, उधर कुछ भय है । इसलिए तुम शीघ्र ही ग्राम छोड़ कर विएना को चली जाओ । वहाँ मैं तुम से मिलूँगा और तुम्हारे रहने का प्रबन्ध कर दूँगा।

प्यार !"

जिस समय  फ्रित्सी को यह पत्र मिला, उसी समय वह तैयारी करके घर से निकली । परन्तु ज्योंही वह ग्राम के फाटक पर पहुँची, उसे कुछ सिपाहियों ने रोक लिया । सिपाही रूसी सेना के थे। रूसियों ने सारा ग्राम चारों ओर से घेर लिया था। फाटक पर नोटिस लगा था- 'किसी व्यक्ति को भी ग्राम छोड़ने की आज्ञा नहीं है । जिस किसी को ग्राम से बाहर जाना हो, उसे अफ़सर से पास लेने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । जो कोई व्यक्ति बिना पास के ग्राम से बाहर निकलने की चेष्टा करेगा, उसे दंड मिलेगा।'

फ्रित्सी को इतना शीघ्र रूर्सी फ़ौज के चंगुल में फँस जाने की आशा नहीं थी । वह काल से मिलने के लिए छटपटा रही थी। कार्ल भी उसके लिए विएना में प्रतीक्षा कर रहा था । उससे रुका न गया। आज्ञा मिले या न मिले, वह जाएगी अवश्य । यह निश्चय करके वह अफ़सर की ओर चली। परन्तु वहाँ पता लगा कि अफसर से कोई दूसरे दिन तक न मिल सकेगा । ज्यों-त्यों फ्रित्सी ने रात्रि के आगमन की प्रतीक्षा की। कुछ अन्धकार हो जाने पर वह घर से निकली और एक पगडण्डी से उसने ग्राम से निकलने का विचार कर लिया। कुछ दूर गई थी कि इधर-उधर से सिपाही निकल आए और उसे गिरफ्तार कर लिया । उसे यह पता न था कि चारों ओर के नाके घिरे हुए थे।

एक पुराने अधटूटे गिनें में रूसी अफ़सर ने अपना दफ्तर खोला हुआ था। वहीं सिपाही फ्रित्सी को ले गए। वहाँ तीन-चार वैसे ही कैदी और थे । एक उनमें से थे महन्त । दूसरे लोग उस सभ्य समाज के व्यक्ति थे, जो  फ्रित्सी को कभी विएना में तिरस्कार, उपेक्षा और उपहास की दृष्टि से देखता था।

अफ़सर के समक्ष क़ैदी पेश किए गए। सबसे पहले फ्रित्सी का नम्बर था। अफ़सर मेज़ के ऊपर बैठा था।

फ्रित्सी सामने आ खड़ी हुई। अफसर ने सिर ऊँचा किया, कुछ देर किसी की ओर देखा और चिल्ला उठा- फ्रित्सी।

अफसर वही पिट्रोविच था।

'हाँ, पिट्रोविच, यह फ्रित्सी है..., फ्रित्सी ने शान्ति- पूर्वक कहा।'

'सो मेरी बात पूरी हो गई।"

'क्या?'

'यही कि युद्ध क्षेत्र में हमारा मिलन होगा।'

'इस बात का तुम्हें बड़ा गर्व है?"

'क्यों नहीं? जिस फ्रित्सी ने कभी मेरा तिरस्कार किया था, मेरे प्रेम की अवहेलना की थी, आज वही फ्रित्सी मेरे सामने एक क़ैदी, एक अपराधिणी के रूप में खड़ी है।"

'कह लो पीट्रो, यह सब कुछ क्योंकि यहाँ पर कार्ल तुम्हारी इन बातों का उत्तर देने के लिए उपस्थित नहीं है। कार्ल होता तो तुम्हारा यह साहस न होता ।'

'कार्ल? अब भी कार्ल? अब कार्ल को भूल जाओ, फ्रित्सी! उसका नाम मेरे भागे अब न लेना । मुझे उसके नाम से क्रोध हो आता है। अब तुम पीट्रोविच के अधीन हो ।'

'पिट्रोविच के अधीन नहीं, एक रूसी अफसर के अधीन हूँ । केवल एक युद्ध की क़ैदी हूँ । तुम अपनी व्यक्तिगत बातों को इस बीच में नहीं ला सकते ।'

'नहीं। इसे देखना चाहती हो? रूसी अफसर सर्वशक्तिशाली है। वह जो कुछ कहता है और करता है, उसके विरोध की शक्ति केवल सम्राट् में ही है। जानती हो, तुम्हारा अपराध कैसा है?

'नहीं।'

'गुरुतम। '

फ्रित्सी चुप रही।

'जानती हो इसका दण्ड क्या होगा?"

'अधिक से अधिक मृत्यु।'

'यह अधिक से अधिक नहीं है। यह साधारण मृत्यु नहीं है। पीट्रोविच के द्वारा तुम्हें जो मृत्यु मिलेगी वह बड़ी भयानक, बड़ी दारुण, बड़ी पीड़ाजनक होगी।"

'मुझे इसकी कुछ चिन्ता नहीं।'

'ख़ैर, तब और बात है। परन्तु यदि इस मृत्यु से छुटकारा चाहो, तो उसका उपाय भी मेरे पास ही है।"

"मैं मृत्यु से छुटकारा नहीं चाहती, पीट्रो ! मैं तुमसे छुटकारा चाहती हूँ।"

'मुझसे? अब भी उतनी ही घृणा।'

'उतनी ही नहीं, उससे अधिक।'

'परन्तु फिर भी मैं तुम्हें फाँसी के तख्तों पर लटकने से बचाना चाहता हूँ। उपाय बहुत सरल है।'

'मैं उपाय नहीं जानना चाहती।' फ्रित्सी चुप रही।

'एक बार सुन लेने में क्या हानि है?"

'कार्ल की आशा छोड़ दो । अब भी मेरे पास आ जाओ, मेरी होकर रहो तो सब काम बन जाए।' —पीट्रोविच ने कहा । परन्तु इसके पहले ही कि वह यह वाक्य समाप्त करे, फ्रित्सी क्रोध में भरी हुई दोनों हाथ फैलाए उसकी ओर दौड़ी। परन्तु पीट्रोविच ने बीच ही में उसे पकड़ कर एक बन्द कोठरी में रखवा दिया।

जब अन्य कैदी पीट्रोविच के सामने आए तो उसने उनके सामने यही शर्त रक्खी कि यदि फ्रित्सी उसके पास दो दिन रहना स्वीकार करे तो उन सबको न केवल छोड़ ही दिया जाएगा, बल्कि बाहर जाने के लिए पास भी दे दिए जाएँगे।

जीवन सबको प्यारा होता है। इस समय सब कैदियों को अपने-अपने प्राण की चिन्ता थी, उन्हें फ्रित्सी के सतीश्व की क्या चिन्ता थी। वे सब फ्रित्सी के पास गए, उसकी अनुनय-विनय की, समझाया, देश-सेवा के नाम पर अपील की, परन्तु फ्रित्सी ने अपने सतीत्व को किसी भी दामों बेचना स्वीकार न किया।

अन्त में महन्त फ्रित्सी के पास पहुँचे।

'फ्रित्सी !"--महन्त ने कहा।

'हाँ'-- फ्रित्सी ने उत्तर दिया।

'तुम ईश्वर में विश्वास रखती हो?'

'हाँ।'

'बाइबिल में ?'

'हाँ ।" 

'अच्छा, मैं तुम्हें एक भेद बताना चाहता हूँ । तुम सुनने के पूर्व ईश्वर के सामने बाइबिल हाथ में लेकर यह प्रतिज्ञा करो कि किसी पर मेरे भेद न खोलोगी ।' फ्रित्सी ने प्रतिज्ञा ली।'

'तुम जानती हो, मैं कौन हूँ ?'--महन्त ने पूछा ।

'किसी गिर्जे के महन्त ।'

'नहीं ।'

'फिर ?"

'मैं ऑस्ट्रिया का प्रसिद्ध जासूस गुस्ताव हूँ ।'

'गुस्ताव ?'- फ्रित्सी ने विस्मय से कहा।

गुस्ताव अस्ट्रिया का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध जासूस था, फ्रित्सी यह स्वप्न में भी विचार न करती थी कि कभी इस प्रकार उससे भेंट होगी। वह बोली-- 'आप यहाँ क्या कर रहे हैं?'

"मैं शत्रु की सेना का पता लगाने आया हूँ। क्या तुम मेरी सहायता करोगी?"

'कहिए।'

'मुझे विएना आज रात तक पहुँचना चाहिए। नहीं तो सारा देश संकट में पड़ जाएगा।'

'पर यहाँ से कैसे निकलना होगा?'

'उसका एक ही उपाय है।"

'मैं?'

'हाँ।'

'आप यह चाहते हैं कि मैं अपना सतीत्व आपको बचाने के लिए नष्ट कर दूँ?"

'सतीत्व क्या चीज़ है, बेटी? देश के सामने यह सब बातें क्या मूल्य रखती हैं? तुम औस्ट्रियन हो, तुम्हारा देश संकट में पड़ा हुआ है, तुमसे देश एक बलिदान चाहता है, क्या अपने लाखों देशवासियों को, अपने देश की प्रतिष्ठा तथा यश को बचाने के लिए तुम यह बलिदान नहीं कर सकतीं, देश यदि युद्ध में विजयी होगा तो तुम जैसे व्यक्तियों का नाम ही अमर रहेगा; जिन्होंने देश की वेदी पर अपनी बहुमूल्य आहुतियाँ चढ़ाई थीं। सो चलो, एक ओर तुम्हारा सतीत्व है, दूसरी ओर तुम्हारी मातृभूमि का भविष्य। विचार कर लो, किसको तुम अधिक प्यारा समझती हो।'

फ्रित्सी सोचने लगी। क्या वह पीट्रोविच की कुत्सित इच्छा को पूर्ण कर दे? फिर वह कार्ल को और अपने आपको भी अपना मुख दिखाने योग्य न रह जाएगी । फिर उसे अपने जीवन का भी अन्त करना पड़ेगा। और उसका अर्थ होगा--कार्ल से सदा के लिए वियोग। हा! वह कार्ल के साथ कुछ दिनों भी तो न रह पाई। उसके प्रेम का, उसके साथ निवास करने का जो सुख होता, उसका उसे तनिक भी तो अनुभव न हो पाया। वह नेत्रों में आँसू ले आई।

'तुम माया-मोह में पड़ी हो, फ्रित्सी । परन्तु मातृ- भूमि के मोह से बड़ा मोह कौन सा है? क्या यह सतीत्व तुम्हारे काम आएगा, जब देश विदेशियों के हाथ में होगा और सहस्रों नारियों का सतीत्व उनके द्वारा नष्ट होगा ? देश की वेदी पर यह तुम्हारी बड़ी मूल्यवान आहुति होगी, परन्तु यदि तुम थोड़ी वीरता से काम लोगी तो तुम इसे कर सकोगी। बोलो, क्या उत्तर है?'

'करूँगी।'-- फ्रित्सी ने कहा!

(5)

दूसरे दिन विएना से सेना, कार्ल की अध्यक्षता में वहाँ आ चढ़ी।

शत्रुओं को मार कर भगा दिया। कार्ल बड़े चाव से गिर्जे के भीतर फ्रित्सी को ढूँढ़ने गया । परन्तु वहाँ उसे केवल दो शव मिले। एक उनमें से फ्रित्सी का था और दूसरा पीट्रोविच का!

-डॉक्टर धनीराम प्रेम

 

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