जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

अपने-अपने आग्रह 

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 बलराम अग्रवाल

"तुझे मेरा नाम मालूम नहीं है क्या?" वह उस पर चीखा। 

"है न-रामरक्खा!" 

"रामरक्खा नहीं, अल्लारक्खा।" 

"एक ही बात है।" 

"एक ही बात है तो अल्लारक्खा क्यों नहीं बोलता है?" 

"मैं तो वही बोलता हूँ। तुझे पता नहीं, कुछ और क्यों सुनाई देता है!"

-बलराम अग्रवाल 
 ई-मेल: balram.agarwal1152@gmail.com
 
[तैरती हैं पत्तियाँ, प्रकाशक-अनुजा बुक्स, दिल्ली] 

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