महाकवि वाल्मीकि उपजीव्य है आपकी रामायण तुलसी से लेकर न जाने कितने ही प्रतिभावान कवियों ने अपने विवेक और मेधा से इसे रचा है बार बार रामायण की कथा कितने ही रंगों और सुगंधों के साथ बन गई है मानव जन जीवन का हिस्सा हे आदि-कवि तुम्हें प्रणाम! महाकवि, मैं कवि नहीं हूँ मुझमें बहुत सीमित है मेधा और विवेक इसलिए किसी चोर की तरह घुस रहा हूँ इस महाग्रंथ में और खोजना चाहता हूँ उन पात्रों को जिन्हें आपने गढ़ा तो सही पर इतना अवसर नहीं दिया कि वे कह पाते अपने मन की बात! महाकवि, आपने उन्हें बना दिया इस रथ के पहियें और कभी नहीं सुनी उनके रुदन की आवाज़ सब देखते रहे रथ की ध्वजा उसका वैभव और उसकी गति किसने देखना चाहा उन गड्ढों को जो हर पल हिला देते थे इन पहियों का संतुलन फिर भी ये चलते रहे समानांतर आपके ही गंतव्य की ओर आप तो बस श्रीराम के ही सारथी बने रहे! महाकवि, मुझे क्षमा करना मैं विश्वकर्मा तो नहीं हूँ कि उन अचर्चित पात्रों के लिए रच दूं एक नया नगर पर हाँ, एक छोटा-सा बढ़ई ज़रूर हूं जो बनाना चाहता है एक सुंदर सी खिड़की आपकी ही दीवार में जिसमें से झाँक सके उर्मिला, सुमित्रा और मंदोदरी जैसे पात्र थोड़ी-सी साँस ले सकें ताज़ा हवा में और हम उन्हें जी भर कर देख सकें उनकी अनकही भावनाओं के साथ! मुझे शक्ति देना महाकवि, कलयुग में लोग मानवीय भावनाओं के विश्लेषण को लेकर अधिक ही विचारशील हो गए हैं!
-राजेश्वर वशिष्ठ [सुनो, वाल्मीकि, कविता-संग्रह |