जाही ते कछु पाइये, करिये ताकी आस। रीते सरवर पर गये, कैसे बुझत पियास॥
दीबो अवसर को भलो, जासों सुधेरै काम। खेती सूखे बरसिबे, घन को कौनै काम॥
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौर। तेतो पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर॥
विद्या-धन उद्यम बिना, कहौ जु पावै कौन। बिना डुलाये ना मिलै, ज्यों पंखा को पौन॥
अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय। मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥
बुरे लगत सिख के बचन, हिये विचारो आप। करुवी भेषज बिन पिये, मिटै न तन की ताप॥
अति अनीत लहिये न धन, जो प्यारो मन होय। पाये सोने की छुरी, पेट न मारे कोय॥
सबै सहायक सबल के, कोउ न निचल सहाय। पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय॥
समय समझ के कीजिये, काम वहै अभिराम। सैंधव माँग्यौ जीमते, घोरा को कह काम॥
रोस मिटै कैसे कहत, रिस उपजावन बात। ईंधन डारे आग मों, कैसे आग बुझात॥
अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय। ज्यों ज्यों भीजै कामरी, त्यों त्यों भारी होय॥
जो जेहि भावै सो भलो, गुन को कछु न विचार। तजि गजमुकता भीलनी, पहिरति गुंजा-हार॥
अपनी अपनी ठौर पर, सोभा लहत बिसेख। चरन महावर है भलो, नैनन अंजन-रेख॥
जाको जैसो उचित तिहिं, करिये सोइ बिचारि। गीदर कैसे ल्याइहै, गजमुक्ता गज मारि॥
कोउ बिन देखे बिन सुने, कैसे कहै चिचार। कूप-भेक जाने कहा, सागर को विस्तार॥
जाकी ओर न जाइये, कैसे मिलिदै सोइ। जैसे पच्छिम दिसि गये, पूरब काज न होइ॥
स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं। सेवें पंछी सरस-तरु, निरस भये उड़ि जाहिं॥
कुल सपूत जान्यौ परे, लखि सुभ लच्छन गात। होनहार बिरवान के होत चीकने पात॥
जो पावै अति उच्च पद, ताको पतन निदान। ज्यों तपि तपि मध्याह्न लौं, अस्त होत है भान॥
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पण्डित होय। दीपक को रवि के उदै, बात न पूछे कोय॥
जिहि प्रसंग दूषण लगे, तजिये ताको साथ। मदिरा मानत है जगत, दूध कलारी हाथ॥
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर। समय पाय तरुवर फरे, केतिक सींचौ नीर॥
क्यों कीजै ऐसो जतन, जाते काज न होय। परबत पर खोदै कुँआ, कैसे निकलै तोय॥
भेष बनावै सूर कौ, कायर सूर न सोय। खाल उढ़ाये सिंह की, स्यार सिंह नहीं होय॥
सब देखै पै आपनो, दोष न देखे कोइ। करै उजेरो दीप पै, तरे अँधेरो होइ॥
करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात तें, सिल पर होत निसान॥
- वृन्द |