'काफ़िर है, काफ़िर है, मारो!' उत्तेजित जन चिल्लाये; विद्यार्थी जी बिना झिझक के झट से आगे बढ़ आये।
"काफ़िर' - वह करीम उनको भी देता है दाना-पानी; पर 'अल्लाहो अकबर' कहकर ठीक नहीं है शैतानी।
अरे खुदा के बन्दो, ठहरो, क्या करने जाते हो आह! बचो, बचो, शैतान भुलाकर तुम्हें कर रहा है गुम-राह।
नहीं भागने को आया मैं, मुझे भले ही मारो तुम; फिर भी सब हिन्दू न मरेंगे, जी में ज़रा बिचारो तुम।
अरे, प्यार का प्याला रहते भाया है क्यों ज़हर तुम्हें? क़हर करोगे क़हर मिलेगा महर करोगे महर तुम्हें।
हाज़िर मेरा खून, तुम्हारा फूले फले अगर इस्लाम, जिसकी खूबी बतलाते हो भाई-चारे का पैग़ाम।
भाई, उसके लिये चाहिये तुममें दुनियाँ-भर का प्यार; मगर तुम्हारे हाथों में है नाच रही नंगी तलवार।
सड़ी-सड़ी बातों पर हम दो भाई लड़ते-मरते हैं। और तीसरे हँसकर हम पर हाय! हुकूमत करते हैं।
यह दोजख़ की आग जलाकर क्या बहिश्त में जाओगे? आप गुलामी गले लगाये आज़ादी क्या पाओगे?
मन्दिर तोड़-तोड़ कर तुमने आज मसजिदें तुड़वाई। राम-रहीम एक की दो-दो जगहें गोड़ी, गुड़वाई।
नहीं मसजिदें ही उसकी हैं गिरजे भी हैं, मन्दिर भी। बन्दे बहुत-बहुत हैं उसके मगर एक वह है फिर भी।
राम, खुदा के पाक नाम पर करके शैतानों के काम, क्या शहीद हो सकते हैं हम उस मालिक के नमकहराम?
ऐसे हिन्दू-मुसलमान से मैं 'म्लेच्छ-काफ़िर' ही खूब; मन्दिर-मसज़िद से पहले है मुझ में ही मेरा महबूब!
अरे इसी में मौज मज़ा है लगा लगाकर हम बाज़ी; तरह तरह से आव-भगत कर हिल मिल करें उसे राजी।
सदियों तक आपस में लड़कर करते रहे बराबर वार, एक बार तो बैर छोड़कर भाई, कर देखो तुम प्यार।
इसी मुल्क में हुए, और हम यहीं रहेंगे आगे भी; लड़ मर कर सह चुके बहुत, क्या और सहेंगे आगे भी?
अब मत भोगो, अपने हाथों अरे बहुत तुमने भोगा; हिन्दू-मुसलमान दोनों का यह संयुक्त राष्ट्र होगा।"
* * *
हीन हुई दिनकर की आभा सान्ध्य-गगन में होकर दीन, हेतु बिना जाने ही सहसा सुहृदों के मन हुए मलीन!
व्याप्त हो गया मारुत-रब में स्वजनों का अज्ञात विलाप, फूल गयी 'बापू' की छाती बहुत दूर अपने ही आप!
ओ माँ, तेरी गोदी में है तेरा लाल पड़ा स्वच्छन्द; उत्सव आज मना ले अक्षय न्यून न हो तेरा आनन्द!
कवि, तू भी आनन्द नृत्य कर, मति क्यों मूक हुई तेरी; युग-युगान्त के बाद बजा ले घन-गम्भीर विजय भेरी!
* * *
उत्पीड़ित पद-दलित जनों ने मुक्ति मन्त्र दाता खोया; पुण्य पथी नवयुवक जनों ने जीवन-निर्माता खोया।
लक्ष-लक्ष श्रमिकों कृषकों ने त्राता-सा त्राता खोया; अगणित बन्धुजनों ने अपना भ्राता-सा भ्राता खोया।
-सियाराम शरण गुप्त |