अकेला बीज धरती से मिलके फूटा खिलके।
बढ़ने लगा बनकर वो पौधा खिलने लगा।
जैसे ही चढ़ा यौवन-दहलीज़ आँख में गड़ा।
निर्मम हाथ काटने चल पड़े आरी ले साथ।
सहता रहा ‘मत काटो मुझको’- कहता रहा।
नहीं पसीजे बेरहम मानव किया तांडव।
न रुके हाथ यूँ ही करते गए घात पे घात।
हरा वो पेड़ पल भर में बना घास का ढेर।
दूर जा गिरा पंछियों का घरौंदा छितरा पड़ा।
सुन न सका पंछियों का क्रन्दन पाहन मन।
बिसरी राह ठंडी पवन अब कोई न चाह।
छाया उदास भटके यहाँ वहाँ पेड़ न साथ।
मुँह फुलाए घूमता घर-घर दुःखी बादल।
खोजता फिरे रुआँसा-सा पथिक है मित्र कहाँ?
डॉ भावना कुँअर संपादक, ऑस्ट्रेलियांचल ऑस्ट्रेलिया ई-मेल: bhawnak2002@gmail.com |