बात छोटी थी, मगर हम अड़ गए सच कहें, लेने के देने पड़ गए
फूल थे, समझे कि हमसे बाग है सूख कर पत्तों के जैसे झड़ गए
ले गए अपना हुनर बाज़ार में शर्म के मारे वहीं पर गड़ गए
फिर ग़जल ने कर दिया ख़ारिज हमें फिर लगा गालों पे चांटे जड़ गए
जिन खयालों को उगलते ना बना पेट में करते वही गड़बड़ गए
दाद देते हैं, मगर पढ़ते नहीं आज हम भी चोंचलों में पड़ गए
अक्ल के मारों का कोई क्या करे 'शाम' की खातिर सुबह से लड़ गए
-संध्या नायर ऑस्ट्रेलिया ई-मेल : sandhyamordia@gmail.com
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