साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

जैसे मेरे हैं...

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 अनिल जोशी | Anil Joshi

जैसे मेरे हैं, वैसे सबके हों प्रभु
उसने सिर्फ आँखें नहीं दी,
दृष्टि भी दी,
चारों तरफ अंधकार हुआ,
दे दिया ,
ह्रदय में मणि का प्रकाश,
सुरंग थी, खाईयां थी और अंधेरी सर्पीली घाटियां,
तो मन में दे दिया,
अनंत आकाश।

इधर थी बाधाएं, चुनौतियाँ
तो उधर दे दिए संकल्प,
बेपनाह आत्मविश्वास
दस रास्ते बंद किए,
तो सौ द्वार खोले,
हर सह्रदयी चेतना से,
तुम ही तो बोले।

जीवन के थपेड़े थे,
परिस्थितियों की लहरों का,
समुद्री गर्जन,
मझधार, भवरें अनेक,
तो पकड़ा दिया मस्तूल,
सही-गलत का विवेक,
अबूझ संसार दिया,
तो दे दिए,
शब्दों के मंत्र।

कैसी–कैसी परीक्षाओं में डाला
फिर मंत्र दिए,
और खुद ही निकाला।

हम तुमसे शिकायत करते रहे,
लड़ते रहे,
तुम हँसते रहे,
यूं ही हमें,
हमारी ही बेहतरी के लिए,
गढ़ते रहे।

तुम ऐसे हो, वैसे हो, जैसे हो
मुझे पता नहीं कहाँ हो,
कैसे हो,
लोगो ने तुम्हें महान और भगवान बताया,
मैं तो इतना जानता हूँ,
हर नकार के बावजूद,
तुमने मुझे ,
जीवन के प्रति आस्थावान बनाया।

प्रभु देखता हूँ,
आँसू है,चीख है
जिंदगी की एक-एक बूंद के लिए,
आदमी मांगता भीख है,
बीमारी है,लाचारी है,
प्रार्थना बस इतनी ही है,
जैसे मेरे हो, वैसे ही
सबके हो प्रभु।
जैसे मेरे हो…

-अनिल जोशी

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