वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

कोई बारिश पड़े ऐसी... | ग़ज़ल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

कोई बारिश पड़े ऐसी, जो रिसते घाव धो जाए
भले आराम कम आए, ज़रा सा दर्द तो जाए

बहुत चाहा कभी मैंने, मेरी मर्ज़ी चले थोड़ी
यही मर्ज़ी है अब मेरी, जो होना है,सो हो जाए

बड़ी छोटी थी वो ख्वाहिश, जिसे दिल में जगह दी थी
नहीं मालूम था सरसब्ज़, कितने बीज बो जाए

न जाने कौन सी मंज़िल है, जो चुंबक सरीखी है
कि खिंचता जा रहा है वो, मेरे आगे से जो जाए

कहां तक बोझ इस दिल का मेरी नज्में उठाएंगी
है जिसका बोझ वो जाने, गिराए या कि ढो जाए

सुना ऐसी भी जन्नत है, जो खुलती है गरीबों पर
फटी बस जेब से गिरकर अगर चाभी न खो जाए

ये यादों की निगेहबानी में अब लगता नहीं है दिल
खुला छोड़ा है दरवाज़ा, जिसे जाना हो ,वो जाए

किया सब कुछ बयां मैंने, जो कहना था ,कहा मैंने
कि अब कागज़ की करवट पर,मेरी तहरीर सो जाए

कोई सूरज को समझाए, मुहब्बत में तपिश रक्खे
बुझा सा दिल लिए, मिलने न अपनी 'शाम' को जाए

-संध्या नायर
ऑस्ट्रेलिया

 
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