दे दिए अरमान अगणित पर न उनकी पूर्ति दी, कह दिया मन्दिर बनाओ पर न स्थापित मूर्ति की।
यह बताया शून्य की आराधना करते रहो-- चिर-पिपासित को दिया मरुथल, मगर निर्भर नहीं ! गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?
स्नेह का दीपक जलाकर आह और कराह दी, रूप मृण्मय दे, हृदय में अमरता की चाह दी।
कह दिया बस मौन होकर साधना करते रहो-- 'पा जिसे तू जी सका, खोकर उसे तू मर नहीं !' गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?
गगन सीमाहीन, दुस्तर सिन्धु परिधि अथाह दी, आदि-अन्त-विहीन, मुझको विषम-बीहड़ राह दी।
कह दिया, अविराम जग में भटकते फिरते रहो-- कर प्रवासी दे दिया परदेश, लेकिन घर नहीं ! गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं ?
-शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
|