साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

मुक्ति

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar

उसे रह-रहकर बीते दिनों की याद आ जाती थी। उसका गला भर आता था और आँखों से आँसू टपकने लगते थे। उसे मुक्त हुए अभी बहुत दिन नहीं बीते थे। उसकी मुक्ति किसी एक की मुक्ति नहीं, बल्कि सारी जाति की मुक्ति थी।

वह अमेरिका का रहनेवाला एक नीग्रो था। उन दिनों अमेरिका में नीग्रो और दासता का एक ही अर्थ समझा जाता था, परंतु उसी अमेरिका में एक ऐसा इनसान पैदा हुआ, जो उस दासता को मिटाने के लिए अपना खून बहाने से भी नहीं डरा । वह इनसान था अब्राहम लिंकन उसने नीग्रो जाति से कहा, "कोई किसी को दास नहीं बना सकता। अपने जीवन को बनाने और बिगाड़ने के लिए आप सब स्वतंत्र हैं!' "

उसकी कोशिशों से नीग्रो जाति दासता से मुक्त हो गई, लेकिन मुक्त हो जाने से पेट का सवाल हल नहीं होता। उसके लिए रोजगार चाहिए उसी रोजगार की खोज में वह नीग्रो घूम रहा था जहाँ भी पता चलता, वह जाता और पूछता, “कोई काम है?"

पर हर जगह उसे एक ही उत्तर मिलता, "यहाँ कोई काम नहीं हैं, आगे बढ़ो।"

वह आगे बढ़ जाता। घूमते-घूमते उसके वस्त्र फट गए, पैरों में बिवाइयाँ पड़ गई, शरीर थककर चूर हो गया । उसके लिए अब एक कदम भी आगे बढ़ना दूभर था, पर उसे तो आगे बढ़ना था। वह रुक कैसे सकता था! रुकना मौत हैं, इसलिए वह बराबर बढ़ता गया। अचानक एक दिन उसकी भेंट पुरानी मालिक जाति के एक व्यक्ति से हो गई। नीग्रो की यह दुर्दशा देखकर वह व्यक्ति बहुत दुःखी हुआ, बोला, "तुम्हारी यह क्या दशा हो गई है? जान पड़ता है, तुम बड़ी मुसीबत में हो।"

नीग्रो बोला, "जी हाँ, काम नहीं मिलता। जीना मुश्किल हो गया है।"

वह मुस्कराया, “पिछले दिनों तो तुम ऐसे नहीं थे?"

“पिछले दिनों!” नीग्रो ने लंबी साँस लेकर कहा, "उन दिनों मुझे बहुत आराम था। मेरा स्वामी बड़ा दयालु था। वह मुझे कभी कठिन काम नहीं देता था। वह मुझे कभी कोड़ों से नहीं पीटता था।''

यह सुनकर मालिक जाति का वह व्यक्ति और भी सहानुभूति से भर उठा, बोला, "तब तो यह मुक्ति तुम्हें महँगी पड़ी। तुम लोग पहले ही अच्छे थे।"
न जाने क्या हुआ, न जाने उस कंकाल में कहाँ से जीवन उमड़ आया, वह नीग्रो जल्दी से उठा और दरवाजे की ओर चल दिया। वह लड़खड़ा रहा था, पर उसकी आँखों में प्रसन्नता की एक तेज रोशनी चमकने लगी थी। दरवाजे पर आकर वह क्षण भर के लिए रुका, बोला, "जी नहीं तब हम दास थे, अब मुक्त हैं अपना जीवन बनाने और बिगाड़ने के लिए मुक्त हैं। मुक्ति इनसान के जीवन की शर्त है।”

यह कहकर वह रुका नहीं, दृढ़ता से अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। मालिक जाति के उस व्यक्ति को ऐसा लगा, जैसे किसी ने उसके गाल पर जोर से तमाचा मार दिया हो।

-विष्णु प्रभाकर

 
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