वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

चांद कुछ देर जो ... | ग़ज़ल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

चांद कुछ देर जो खिड़की पे अटक जाता है
मेरे कमरे में गया दौर ठिठक जाता है

चांदनी सेज पर मखमल सी बिछा जाती है
सलवटों में कोई चंदन सा महक जाता है

तुम मेरे पास, बहुत पास चले आते हो
वक्त गुज़री हुई राहों में भटक जाता है

जिस्म को याद कोई सर्द छुअन आती है
फिर बुझी प्यास का अंगार धधक जाता है

सांस सीने से उचकती है तुम्हें छूने को
ज़ब्त का वर्क तमन्ना से ढलक जाता है

हसरतें रेशमी तारों सी उलझ जाती हैं
जो भी सुलझाया, वही तार चटक जाता है

इस तसव्वुर की हकीकत है फकत रुसवाई
जिसको बहला न सके, दिल वो बहक जाता है

मैं सरे शाम तुम्हें याद किया करती हूं
सिलसिला जिस्म से हो, रूह तलक जाता है

- संध्या नायर, ऑस्ट्रेलिया

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