हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।

एक लड़की

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 डॉ संध्या सिंह | सिंगापुर

आज बार-बार जीवन बाईस साल पहले मुड़ उस दिन को याद कर रहा है जिसने एक लड़की के जीवन को एक अलग ही दिशा दे दी। नवरात्रि का समय और देवी दर्शन की चाह लिए एक लड़की विंध्यांचल से भोर में घर लौटती है । चूँकि भोर हो गई है इसलिए लौटते ही सुबह के कार्यक्रम में पुन: व्यस्त है और तभी कुछ ऐसा होता है जो उसके जीवन की सबसे ख़ास मोड़ बन जाती है। आखिर समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है, पता भी नहीं चलता। धीरे-धीरे कब उस चुलबुली लड़की के प्रौढ़ा की ओर कदम बढ़ चले अहसास ही नहीं हुआ। आज अतीत में झाँकने पर कितनी बातें परत-दर-परत खुलती चली जाती हैं। एक सीधी-सादी 19 साल की लड़की जिसके लिए किसी बात में गहराई नहीं थी। हर बात मज़ाक में उड़ा देना जिसकी फितरत रही हो। पढ़ाई-लिखाई, घर की बातें सब उसके लिए गौण हो जाती थीं। कभी किसी चीज़ को गंभीरता से नहीं लिया हो। पारिवारिक माहौल ने उसमें एक अलग ही सोच विकसित कर दी थी। उसने तो सपने में एक ऐसे राजकुमार की कल्पना कर ली थी जो फ़िल्मों के किरदारों से प्रभावित हो। बाबुजी से मज़ाक में हमेशा कहती, “मेरी शादी तो ‘आई.ए.एस.’ से करवाइएगा ताकि ऐश की ज़िन्दगी जिऊँ। और हाँ, सबसे ज़रूरी अपने शहर में बिल्कुल नहीं। कहीं दूर अंडमान निकोबार में ढूँढिएगा ताकि रोज़-रोज़ रिश्तेदार आपको तंग करने न आएँ।” उसने अपने ‘करियर’, अपनी पहचान के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं था। उसे तो ब्याह करके बस अपना घर बसाना था पर अचानक सपनों ने एक नया मोड़ ले लिया। वह ब्याह के बाद समुन्दर पार एक छोटे से टापू पर आ गई। सपने तो अब भी वही थे जो कॉलेज के दिनों में देखे थे, पर अब इन सपनों में विदेशी भूमि से जुड़ने का नया अध्याय जुड़ गया था। मज़ाक में कही हुई कुछ बातें सच हो गईं। कभी-कभी तो क्या रिश्तेदार तो शायद ही कभी उसके बाबुजी को तंग करने जाएँ।

पच्चीस-छब्बीस सालों में बहुत कुछ बदल गया है पर वह समय आज जैसा नहीं था। तब भारत इतना आधुनिक नहीं था। एक छोटे से शहर की लड़की भारत से बाहर फ़िरंगी भूमि पर आ तो गई पर खुद को असहज महसूस करने लगी। दोनों शहरों के बीच ज़मीन-आसमान का अन्तर नज़र आने लगा। शुद्ध हिन्दी माध्यम से पढ़ी लड़की अंग्रेज़ी माहौल में घुटने लगी। कई-कई दिन निकल जाते, वह कुछ बोलती ही नहीं। यहाँ की बोली न ज़्यादा समझ आती न लोगों का रंग-ढंग भाता। हमेशा यही मलाल रहता कि बाबुजी ने अंग्रेज़ी माहौल में क्यों नहीं शिक्षित किया। दूर कहा था ब्याहने को, इतनी दूर नहीं! पर ब्याह तो हो गया था। माँ ने बड़े लाड़-प्यार से डोली विदा कर दी थी। अब उसे सामंजस्य तो बिठाना ही था। चाहे माँ की खातिर या परिवार से मिले संस्कार की खातिर। अब तक राजपूती पारिवारिक कवच में पली-बढ़ी लड़की को अचानक स्वयं सब कुछ करने के लिए छोड़ दिया गया। कहते हैं तितली जब स्वयं संघर्ष करके अपने कवच से बाहर आती है तभी वह दुनिया से लड़ पाती है और अपना जीवन-चक्र सफ़ल बना पाती है। संभवत: किसी तितली ने उसे भी प्रेरणा दे दी हो और वह अपने बलबूते खुद को साबित करने में लग गई। शुरुआती दो-तीन वर्ष तो संघर्ष में बीते पर उसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जो लड़की नौकरी आदि से कतराती रहती थी, वह काम ढूँढने लगी। स्वयं की पहचान साबित करने में लग गई।

यह तो सभी जानते हैं कि एक स्थान से वृक्ष को उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाओ तो कई बार वह पूरी तरह से मुरझा जाता है पर कभी-कभी नए माहौल में भी अपनी जड़ें जमा ही लेता है। उसने भी खुद को मुरझाने नहीं दिया। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी हो जाता है कि भले ही उसके पति का जन्म-कर्म सब विदेशी भूमि पर हुआ हो। भारतीयता का ज़्यादा आवरण न रहा हो पर पत्नी के हर कदम पर साथ देने की कोशिश ने कितने लोगों को पीछे छोड़ दिया। उनके एक वाक्य, “जो करना है खुद करो। मैं कभी मना नही करूँगा। हमेशा तुम्हारे पीछे रहूँगा पर रास्ता तुम ही तय करोगी।” ने उस लड़की को इस समाज में अपने अस्तित्व को साँस दिलाने को प्रेरित किया। दोनों के बीच बातचीत ज़्यादा नहीं हो पाती थी क्योंकि पति ने हिन्दी कभी बोली नहीं और लड़की ने अंग्रेज़ी में निबन्ध रटकर लिखने के अलावा कभी कुछ किया ही नहीं था। अगर अपनों का साथ हो तो मुश्किल रास्ते भी आसान बन जाते हैं सम्भवत: ऐसा ही कुछ तब भी हुआ। उस लड़की ने अपने शहर को, अपनी भाषा को अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। उसी काम की तरफ़ मुड़ गई जो उसकी ताकत थी। मातृभाषा पर अपनी पकड़ को लोगों तक पहुँचाने लगी। समय बीतता गया और उसमें परिपक्वता आने लगी। पहले जो समय उसे काटने को दौड़ता, आज उसी समय को अपने परिवार का गौरव बनाने के प्रयास में लगी है। भाषा की प्रेरणादायी बन उसने अपने आसपास भी छूटती हुई संस्कृति को पुन: माला में पिरोना शुरू कर दिया। छोटे से द्वीप पर अपनी भाषा को अपनी ताक़त बनाने लगी और संभवत: अन्य लोगों की प्रेरणा भी बनी। जो कभी उसने सपने में भी नहीं सोचा था , वहाँ वह लड़की पहुँचने में लग गई। जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए पर उस कस्बाई माहौल की लड़की ने विकसित देश में भी उनका जैसे सामना किया, वह इन बातों पर प्रश्न चिह्न लगा देता है कि ज़्यादा समझदारी सिर्फ़ बड़े शहरों में रहने वालों को होती है क्योंकि उन्होंने दुनिया के कई रंग देखे हैं? उसने इस बात पर भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि सफ़ल वही हो सकता है जो उस परिस्थिति के क़ाबिल हो या खुद को क़ाबिल बना ले, क्योंकि उसने परिस्थिति को अपने हिसाब से नया रूप देना शुरू कर दिया। जिसे आप अपनी कमज़ोरी समझते हैं, कई बार वही कमज़ोरी आपकी सबसे बड़ी शक्ति बन जाती है। हिंदी भाषा में शिक्षित लड़की कभी इसे अभिशाप मानती थी पर उसी भाषा को अपनी शक्ति बनाकर लड़ने वाली अब उसे वरदान मानने लगी है। जब हम अपनी जड़ों से जुड़कर कुछ करते हैं तो जो संतुष्टि मिलती है , वह शायद किसी और तरह से मिले। हममें यह दमखम होना चाहिए कि हम अपनी हीनता-ग्रन्थियों से मुक्त हो सकें। ऐसा नहीं है कि खुद को अद्यतन करने से बचने के लिए वह लड़की पीछे मुड़ गई बल्कि उसने पुन: अपनी पढ़ाई शुरू की, नौकरी की, घर-परिवार की ज़िम्मेदारी संभाली। परिस्थितियाँ उसके अनुरूप नहीं थीं बल्कि उसने उन्हें अपने अनुरूप बनाने के लिए बड़ी लगन से मेहनत की। जिस द्वीप में वह लड़की है , वहाँ वैसे तो एशियाई संस्कृति है अत: बाहरी रूप से भारत से बहुत अलग नहीं दिखाई देता पर जैसे-जैसे कदम अन्दर की ओर बढ़ने लगेंगे, भारत से भिन्न बहुत कुछ दिखाई देने लगेगा। इस विभिन्नता में बहुत-कुछ छिपा हुआ है पर अगर जोश है, दमखम है तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है।

इस दास्तान को आज पन्नों पर उकेरने का सिर्फ़ यही मक़सद है कि जीवन कई मौके देता है बस हमें लगता है कि हमने ऐसा तो नहीं माँगा था। जो माँगा अगर उससे अलग मिला तो उस नए को अपनी कला से, अपने संकल्प से निखारना हमारे ही हाथों में है। जो नहीं है सिर्फ़ उसका रोना रोना, किसी मुक़ाम पर नहीं पहुँचाएगा। वह लड़की भी अगर रोती रहती कि मैं अंग्रेज़ीदां माहौल वाले देश में खुद को कैसे साबित करूँ तो आज कहीं घुटन भरी ज़िन्दगी जी रही होती। ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ बहुत सहज था पर कहते है ‘उम्मीद पर दुनिया क़ायम है’ और यही उम्मीद नई पीढ़ी में जगाने की ज़रूरत है।

-डॉ संध्या सिंह
 सिंगापुर

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