साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

पंगा

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 दिव्या माथुर

एक नई नवेली दुल्हन सी एक बीएमडब्ल्यू पन्ना के पीछे लहराती हुई सी चली आ रही थी, जैसे दुनिया से बेख़बर एक शराबी अपनी ही धुन में चला जा रहा हो या कि जीवन से ऊब कर किसी चालक ने स्टीरिंग-व्हील को उसकी मर्ज़ी पर छोड़ दिया हो। उसकी कार का नंबर था आर-4-जी-एच-यू जो पढ़ने में 'रघु' जैसा दिखता था। 'स्टुपिड इडियट' कहते हुए पन्ना चौकन्नी हो गई कि यह 'रघु' साहब कहीं उसका राम नाम ही न सत्य कर दें। दुर्घटना की संभावना को कम करने के लिये पन्ना ने अपनी कार की गति बढ़ा ली और अपने और उसके बीच के फासले को बढ़ा लिया।

विल्स्डन लेन के दोनों ओर लगे पेड़ घबराए से खड़े थे; शायद उन्हें मालूम था कि उनके जाए बस बिछड़ने को थे। सरसराते हुए बेसब्र पत्तों में दीपक के बुझने के पहले जैसी तेज़ लौ थी। पन्ना ने सोचा कि आख़िर संभ्रमित पेड़ों को सुध आ ही गई; पतझड़ का मौसम बीता जा रहा था और अड़ियल पत्ते गिरने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मंद-मंद बयार बह रही थी, हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी। ब्रौंडस्बरी के मुहाने पर पहुंची तो वह स्तंभित रह गई; पंक्तिबद्ध पेड़ों ने रातों रात अपने रंग बदल लिए थे। उनकी डालियां झुक झुक कर राहगीरों को छू-छू कर आकर्षित कर रहीं थीं, 'देखो देखो, हमारे रंग बिरंगे परिधान!'

आँखों में कत्थई और फालसई पत्ते समेटे पन्ना का मन हुआ कि सड़क के किनारे कार खड़ी करके इस नज़ारे को वह जी भर कर देख ले। क्राइस्ट-चर्च एवेन्यु के किनारे पर बना वह चर्च उसे हमेशा आकर्षित करता रहा है; चर्च के आंगन में कोई एक दर्ज़न पेड़ हैं। काश कि बीच वाले एक पेड़ पर कोई उसके लिये एक झूला डाल दे और वह उस पर तब तक झूलती रहे जब तक कि सारे पत्ते झड़ न जाएं। तब वह उठे और उन पत्तों के बिछौने पर एक झपकी लेकर तरोताज़ा हो जाए। किंतु अस्पताल समय पर नहीं पहुंची तो पन्ना को दूसरी एपौंइंटमैंट न जाने कब मिले? उसके माथे के बीचों बीच एक गिल्टी निकल आई है, जिसे लोगों से छिपाना नामुमकिन है। जो भी देखता है, अपनी राय देने से नहीं चूकता, 'पन्ना, सब काम छोड़ कर इसकी जांच करवा लो। हो सकता है कुछ भी न हो, बट…।' इस 'बट' से वह स्वयं भी परेशान रहती है पन्ना। डाक्टर बड़ी मुश्किल से उसे विशेषज्ञ के पास भेजने को राज़ी हुआ था।

पेड़ों और पत्तों को एक सरसरी नज़र से बुहारती पन्ना आगे बढ़ी तो देखा कि सड़क की एक लेन को नारंगी कोनों द्वारा बंद कर दिया गया था और यातायात कछुए की सी गति से चल रहा था। आने और जाने के लिये अब केवल एक ही लेन बची थी जो अल्पकालिक बत्तियों से संचालित थी। पन्ना को लगा कि उसकी तरफ की बत्ती बहुत कम समय के लिये हरी होती है और जब होती है तो किसी 'लेज़ी स्टुपिड इडियट' की वजह से केवल तीन या चार कारें ही निकल पाती हैं।

'यदि सब फुर्ती से काम लें तो कम से कम दस कारें तो निकल ही सकती हैं किंतु नहीं। अरे, ऑटोमैटिक-कार क्यों नहीं ले लेते? आदमियों को तो बस कोई खिलौना चाहिए; फिर वह चाहे वो गियरबॉक्स ही क्यों न हो।'  पन्ना को बुड़बुड़ करने के लिये बस कोई सबब चाहिए। उसके विचार में स्वचलित-कार मैनुअल-कार से कहीं बेहतर होती है; ब्रेक पर पांव रखो तो रुक जाती है, एक्सिलरेटर दबाओ तो चल पड़ती है। क्या ज़रूरत है बाइटिंग-प्वौइंट के लिए सिर खपाने की और बार-बार गियर बदलने की? न जाने क्यों इक्कीसवी सदी में भी लोग मैनुअल-कार ही ख़रीदना चाहते हैं, पैसा जोड़ जोड़ कर मर जाएंगे पर ऑटोमैटिक-कार नहीं ख़रीदेंगे। ख़ैर, यदि मैनुअल-टैस्ट पास कर पाती तो कंजूस पन्ना भी मैनुअल-कार ही चला रही होती। 

'इट्स नौट मनी, मम, वन हैज़ मोर कंट्रोल औन मैनुयल्स।' बेटा आदित्य कहता है।

'बुलशिट।' पन्ना का मूड इधर बहुत खराब रहने लगा था; नहीं तो वह बच्चों के सामने पहले कभी गाली नहीं देती थी।

'मम, मेयर औफ़ लंडन एण्ड डेविड कैमरन आर ट्रैवलिंग बाई साइकिल्स टु दि पार्लियामैंट। यू मस्ट केयर फौर दि एन्वायरन्मैंट टू।' बहू आशिमा का मानना है कि पन्ना के ख़राब मूड का कारण उसका लंदन में ड्राइविंग करना है। पन्ना को डबलरोटी भी ख़रीदनी हो तो वह कार में ही जाती है और क्यों न जाए?  इंगलैंड में ड्राइविंग टैस्ट पास करना कोई मज़ाक नहीं है, वह भी पहली बार में। आदित्य और आशिमा दोनों ही तीन बार में जाकर पास हुए थे।

'लीव मी एलोन। आई फील सेफ इन माई कार।' पन्ना झल्ला कर उन्हें चुप करा देती है। जो आज़ादी और सुरक्षा उसे कार में मिलती है, उसे कहीं और नहीं मिलती। उसकी कई सहेलियां तो इस कार की वजह से ही बनी हैं। उन्हें कार में इधर से उधर ले जाने की एवज़ में वे पन्ना के कई काम कर देती हैं; कोई चपाती और चिवड़ा बना लाती है तो कोई गाजर-हरी-मिर्च का अचार डाल देती है।

पन्ना ने सोचा कि अपनी पड़ोसन पुष्पा को आज अपने साथ ले आती तो समय आसानी से ग़ुज़र जाता किंतु पुष्पा बोलती बहुत है, पन्ना को सोचने भी नहीं देती। वैसे भी, उसे बस या रेल से ही सफ़र करना चाहिए था। एजवेयर रोड के मोड़ तक पहुंची ही थी कि बत्ती लाल हो गई किंतु पन्ना कहाँ रुकने वाली थी? आस-पास देखती हुई कि कहीं कोई पुलिसवाला न खड़ा हो, वह फर्राटे से निकल गई। उसे मालूम है कि इस मोड़ पर कैमरा नहीं है। आजकल वह कुछ अधिक ही निडर होती जा रही है। अपनी तरफ की बत्ती देखने के बजाय वह विपरीत दिशा वाली बत्ती पर नज़र रखती है। उसके लाल होते ही वह एक्स्लरेटर पर पांव रख देती है यह जानते हुए कि उसके जैसे अन्य लोग भी होंगे जो लाल बत्ती हो जाने के बावजूद नहीं रुकेंगे। दुर्घटनाएं ऐसे ही तो होतीं है किंतु ऐसी संभावनाओं को पन्ना अधिक देर दिमाग़ में नहीं रखती।

किल्बर्न-स्टेशन पन्ना के पीछे ही था; मन हुआ कि कार को सड़क के किनारे छोड़ कर रेल में बैठ कर चली जाए किंतु एजवेयर-रोड पर डबल-रेड लाईनें लगी हुई थीं; कार को वहां छोड़ देने पर उसे कम से कम पचास पाउंड जुर्माना तो भरना ही पड़ेगा। पार्किंग-परिचर भूखे शेर की तरह घूमते रहते हैं कि कब कोई शिकार मिले और वे उस पर टूट पड़ें। वे भी क्या करें? उनकी तो रोज़ी-रोटी इसी ज़ुर्माने के कमीशन पर चलती है। दो-तीन घंटों से पहले तो वह लौटने से रही; इस बीच शायद दो बार टिकेट लग जाए। हो सकता है कि उसकी कार को ज़ब्त ही कर लिया जाए और फिर उसे छुटाने के लिये उसे कम से कम सौ या डेढ़ सौ पाउंड तो देने ही पड़ें।

किल्बर्न-हाई-स्ट्रीट से गुज़री तो देखा बड़े-बड़े ट्रक और ट्रांस्ज़िट-वैंस आधी से अधिक सड़क को रोके खड़ी थीं और रेड़ीवाले फल और सब्ज़ियां उतार-उतार कर अपनी ट्रौलीज़ में रख रहे थे; लाल हरे सेब, नाशपाती, चैरीज़, तरबूज़- खरबूज़, मुंह में पानी भर आया पन्ना के, उसने सोचा कि यहाँ से अभी हिलने में भी दस-बारह मिनट तो लग ही जाएंगे; क्यों न कार से उतरकर कुछ फल ही खरीद ले पर अभी तो रेड़ी वाले स्वयं ख़रीद-फरोख़्त में लगे थे; वे उसे कहाँ घास डालेंगे? यहाँ कारों का रुकना निषिद्ध है किंतु सुना है कि ये स्टुपिड दुकानदार सेब और संतरों से पुलिसवालों तक के मुंह बंद कर देते हैं।

एक ही जगह खड़े-खड़े बीस मिनट होने को आए थे. ऑटोमैटिक-कार में सुना है कि वैसे ही पेट्रोल अधिक खर्च होता है। 'मम, वेनएवर यू स्टौप, आलवेज़ पुट यौर हैंडब्रेक्स औन। नौट ओनलि दैट यू आर सेफ, यू विल सेव पेट्रोल टू।' आदित्य उसे जब-तब समझाता रहता है।

पन्ना ने हैंडब्रेक्स लगा तो लिये पर वह जानती है कि जब ट्रैफिक चलने लगेगा तो वह उसे रिलीज़ करना भूलकर एक्सिलेटर दबा देगी। यदि किसी को पता लग गया कि उसकी याददाश्त इतनी कमज़ोर हो गई है तो कहीं उसका ड्राइविंग-लाइसैंस ही न ज़ब्त हो जाए। हैंडस्ब्रेक लगाकर वह ब्रेक्स पर से अपना पांव नहीं हटाती ताकि जब ट्रैफिक हिले तो वह जल्दी से चल निकले। हालांकि इस प्रक्रिया में उसके हाथ और पांव दोनों अकड़ के रह जाते हैं। ट्रैफिक जहां का तहां खड़ा था; ऐसी परिस्थिति में इटली, फ़्रांस अथवा भारत के किसी भी शहर में भोंपुओ की आवाज़ से अब तक कानों के पर्दे फट गए होते।

पिछले वर्ष की ही तो बात है कि आदित्य को कोई तीन महीनों के लिए हर सुबह पन्ना के साथ यात्रा करनी पड़ी थी; आदित्य का दफ़्तर पन्ना की चैरिटी के बाज़ू में ही था। बीमें के लिए तेरह सौ पाउंड खर्च करना आदित्य को 'रिडिकुल्लस' लग रहा था और पन्ना के साथ सफ़र करने का मतलब था आलोचना और हर एक की आलोचना। उसकी इसी आदत से परेशान होकर ही शायद आदित्य ने एक खेल ईजाद कर लिया था जिसमें अपने आगे-पीछे और दाएं-बाएं की कारों की नेमप्लेटों के अक्षरों और अंकों को जोड़ कर शब्द बनाने होते थे। इस प्रक्रिया में अक्षरों के साथ कोई भी स्वर (वाओल्स) जोड़ने की छूट थी क्योंकि कई अंको का स्वरूप अक्षरों जैसा दिखाई देता है जैसे कि चार का अंक 'ए' जैसा, पांच 'एस' जैसा और छै 'ई' जैसा दिखता है; वैसे भी मनुष्य का मस्तिष्क भी क्या-क्या गुल नहीं खिलाता, जैसा देखना चाहता है, उसे वैसा ही दिखता है। अभी कल ही तो पन्ना ने एक बड़ी जैगुयार देखी थी जिसका नंबर था 'एस-7-ओ-डब्ल्यु-डी'। उसके दिमाग़ ने सात के अंक को झट से 'एल' मान लिया क्योंकि ऐसा करने से 'स्लो' शब्द बन गया था और 'स्लो' के साथ आख़िरी अक्षर 'डी' को 'डाउन' माना जा सकता था। वाह, क्या नंबर-प्लेट थी, 'स्लो डाउन'। पन्ना को मानो किसी ने एक लंबी पेंग दे दी हो; घर पहुंचते ही उसने आशिमा को इस बारे में बताया तो वह हँसने लगी, 'मम, ‘आंट यु गैटिंग औबसैस्ड विद दि नंबर-प्लेटस?'

पन्ना के लिए यह खेल पूरी तरह से नया नहीं था क्योंकि इसके पहले भी वह कारों के नम्बरों को जोड़ कर न्यूमरौलोजी के आधार पर चालकों का विश्लेषण करती रहती थी। आदित्य के साथ अंताक्षरी तो खेली नहीं जा सकती थी; जहां  पन्ना केवल पुरानी फिल्मों के गीत आते है; वहीं आदित्य नए बौलीवुड गीतों के अलावा कुछ नहीं जानता। आशिमा साथ होती है तो वह मां बेटे का बीच-बचाव करवा देती है क्योंकि वह नए पुराने दोनों गीतों से परिचित है।

एक बार जो पन्ना को इस खेल का चक्का लगा कि उसका दिमाग़ सदा कारों की तख़्तियों पर ही रहने लगा। इस खेल में ज़रूरी है कि कोई पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो। पन्ना भी अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर आगे पीछे चल रहे ड्राईवरों को न केवल भला बुरा कहती, कभी कभी गालियों पर भी उतर आती। कभी इतराती कि वह भी किसी से कम नहीं तो कभी किसी की पौश कार या एक अच्छी सी तख़्ती को देख कर तनावग्रस्त भी हो जाती। आस पास के ड्राइवरों की नंबर-प्लेट्स के आधार पर उनकी हैसियत और मनःस्थितियों का अंदाज़ा लगाने में उसका अच्छा ख़ासा समय बीत जाता।

पन्ना ने अपने बाईं ओर के विंग-मिरर पर नज़र डाली तो देखा कि उसके पीछे वाला चालक पेट्रोल पंप के अंदर से होकर उसके आगे निकल आया था। पन्ना के मुख से बरबस निकल गया, 'लोमड़ की औलाद।'  उसकी स्लेटी रंग की रोवर कार का नंबर था एल6-जे-आई-टी (लैजिट)।

‘लिजिट,’ माई फ़ुट, ज़रूर कोई अवैध व्यापार करता होगा।' अभी वह 'लिजिट' के काले धंधे के विषय में अनुमान लगा ही रही थी कि एक और कार उसके बाईं ओर आ खड़ी हुई, जहां वही वाहन आ सकते थे जिन्हें बाएं मुड़ना हो। बत्ती के हरा होते ही, बजाय बाएं मुड़ने के वह फर्र से पन्ना की कार के आगे निकल आया। 'स्टुपिड इडियट' कहते हुए पन्ना ने अपना हार्न दबा दिया। उसकी फोर्डफ़ोकस का नंबर था पी4जी-ल-ए (पगला)।

‘अरे, यह स्टुपिड इडियट तो सचमुच ही पागल है।‘ यदि पन्ना ने अपनी गति धीमी न कर ली होती तो दुर्घटना हो ही जाती। उस आदमी की कमीज़ मटमैली और बिना इस्त्री किये हुए थी। पन्ना ने अनुमान लगाया कि शायद वैंबली में उसकी फल-सब्ज़ी की दुकान होगी। यद्यपि गुज्जु ऐसा रिस्क लेते नहीं किंतु कोई ज़रूरी काम होगा बेचारे को। उसकी दुकान पर पुलिस ने छापा मारा होगा या फिर दुकान के आगे बढ़ाए गए छप्परनुमा वर्तन को गिरा दिया गया होगा। वह 'सौरी' के अंदाज़ में हाथ और सिर हिला रहा था।

'मेरी कार को इसने छुआ भी होता तो स्टुपिड इडियट को ठीक कर देती।' 'लिजिट' और 'पगले' से घिरी, पन्ना ने यात्री सीट पर रखी अपनी डायरी में दोनों कारों के नम्बर नोट कर लिए। ग़लती चाहे किसी की भी हो, फल तो निर्दोष चालक को भी भुगतना ही पड़ता है। हालांकि बीमें की दर तो उसी की बढ़ती और बोनस भी उसी का ही मारा जाता किंतु समय तो पन्ना का भी बर्बाद होता; बीमा कंपनी से माथा-पच्ची करनी पड़ती, ढेरों शिकायतों का आदान-प्रदान होता, दुर्घटना की जगह के नक्शे बनाए जाते और उनके आधार पर किसी न किसी को को दोषी ठहराया जाता। किसे समय है कि खाली पीली पन्ना के पक्ष में गवाही देने आता?

मार्लिबन-ब्रिज के पास पहुंच कर ट्रैफ़िक बिल्कुल जम सा गया; ‘सौलिड’ सीमेंट सा। बत्ती के हरी होते ही लोग गियर बदलने लगते कि ट्रैफिक हिले तो वे कुछ आगे बढें किंतु एक कार भी आगे नहीं खिसक पाती। प्रयत्न बेकार है, अब वह अस्पताल समय पर नहीं पहुंच सकती। इस बीच, न जाने कितना प्रदूषण उसके फेफड़ों में भर चुका होगा। अगली तारीख़ मिलने तक उसका कैंसर न जाने कितना फैल जाए; कहीं उसका राम नाम सत्य ही न हो जाए। उसकी सहेलियों के विचार में महीनों एपौंइंट्मेन्टस न मिलने की वजह यही है कि रोगी मर जाए, न होगी भैंस न बजेगी बांसुरी। अस्पतालों में यहाँ बच्चों और युवाओं के इलाज को प्राथमिकता दी जाती है। बूढ़ों को ढोते रहने का औचित्य भी क्या है?

पन्ना को लगा कि अब उसे बायें मुड़कर ऐबी रोड पकड़ लेनी चाहिए; बीट्ल्स के स्टुडियो के आगे से निकल कर सीधे दफ्तर पहुंचा जा सकता है पर मार्लिबन-ब्रिज के नीचे से बाईं ओर मुड़ना तो उसे बिल्कुल नामुमकिन लगा। शायद मार्लिबन-रोड के ट्रैफिक की वजह से ही एजवेयर रोड का यह हाल हो।

ना जाने किस धुन में खोया था कि हरी बत्ती हो जाने के बावज़ूद पन्ना के आगे वाली कार का चालक हिला भी नहीं. जब तक उसे होश आयाग, बत्ती फिर से लाल हो चुकी थी। पन्ना के पीछे वाली कार वाले ने ज़ोर का भोंपू बजाकर अपनी नाराज़गी प्रकट की।

'स्टुपिड इडियट’ ने सतर्कता दिखाई होती तो अब तक तो पन्ना इस झमेले से कब की निकल चुकी होती; पन्ना इतनी हताश हो उठी कि उसे लगा कि कहीं वह अपने से आगे वाली कार को धक्का ही न मार दे, 'भैय्या तुम्हें तो शायद जल्दी नहीं किंतु हमें तो समय पर कहीं पहुंचना है।'

पन्ना के पीछे वाली कार वाला (वौल्क्सवैगन पोलो जिसका नम्बर था बी-1-आर- एल-ए यानि कि बिरला) कुछ अधिक ही उतावला हो रहा था। जैसे ही दोबारा उसने अपना हार्न दबाया, पन्ना के आगे वाली कार का गोरा ड्राईवर अपनी हायुनडाई एटोज़ (पी6-एन-आई-एस) यानि कि ‘पीनस’ से बाहर निकल आया और ग़ुस्से में अपने दोनों हाथ हवा में उठाए उसकी ओर बढ़ा। उसकी नेम-प्लेट को देखकर पन्ना के गाल शर्म से लाल हो गए; कोई ऐसा नम्बर कैसे ले सकता है? ज़रूर कोई सनकी व्यक्ति होगा। पन्ना ने झट से अपने दरवाज़े और खिड़किया बंद कर लिए और अपने मोबाइल को कान से लगा लिया कि जैसे वह किसी को फ़ोन कर रही हो।

'यू स्टुपिड इडियट, आई वाज़ नौट दि वन हू हौंकड, इट वाज़ दि ड्राइवर बिहाइंड मी।’ पन्ना ने उसे बताना चाहा किंतु सुनी-अनसुनी करते हुए वह गालियां दिये जा रहा था। अपनी बीच की उंगली ऊपर की ओर उठा कर जब उसने 'अप यौर आस' का संकेत किया तो पन्ना का ख़ून खौल उठा; सिरी को जब आग पर पकाया जाता है तो उसका कुछ ऐसा ही हाल होता होगा जैसा कि इस समय पन्ना के मस्तिष्क का था। अब वह गालियों का जवाब गालियों से दे रही थी, ‘साल्ला पागल कहीं का, स्टुपिड इडियट, एक दूंगी जमा के तो बत्तीसी बाहर आ गिरेगी। बंदर की औलाद, जा चढ़ जा पेड़ पर।’ 

‘स्टुपिड इडियट’ से कहीं बुरी-बुरी गालियां अब पन्ना के मुंह से फ़र्राटे से निकलती हैं और वह स्वयं को अब टोकती भी नहीं; ये अब इंग्लैंड के जीवन का अंग हैं। एक तो यहाँ की धूसर आबोहवा, तिस पर सुबह शाम के इस ट्रैफ़िक से जूझते लोग, जो दो जून की रोटी जुटाने के लिए 14 से 16 घंटे काम करते हैं; रोड-रेज पर न उतर आएं तो क्या बड़ी बात है? किसी ज़माने में करते होंगे लोग परवाह जब 'तुम मेरे आलू लो और मैं तुम्हारा गेहूं' पर समाज अधारित था; अब तो पैसा फेंको और जो चाहे ख़रीद लो; सुपरबज़ार में सब बराबर हैं। अब सब हम ही हैं और हमारी आत्मा; जब कोई बुरा काम करते हैं तो मन को समझा लेते है कि क्या किया और क्यूं किया; जब कुछ अच्छा करते है तो मन में बसी कठपुतलियां ख़ूब तालियां बजाती हैं। हर हफ्ते पन्ना रोड-रेज के कितने ही किस्से टीवी पर देखती है। बच्चों पर अपनी कुंठा निकालने से तो अच्छा ही है कि उसे सड़क पर थूक कर ही घर लौटा जाए।

इस दौरान, बीच-बचाव करवाने के लिए कुछ और लोग भी अपनी-अपनी कारों से बाहर निकल आए। सड़क के किनारे की दुकानदार भी बाहर आ खड़े हुए; ऐसा तमाशा यहाँ कहाँ देखने को मिलता है? एजवेयर रोड के दोनों ओर अधिकतर अरब के लोग ही बसे हैं; एक एशियन महिला को देखते ही वे पन्ना की हिमायत लेने लगे। 

पानी में भीगी हुई मरगिल्ली बिल्ली जो धूप में अचानक फुर्तीली हो उठे, वैसे ही पन्ना स्फ़ूर्तिमान हो गई। लोगों को पन्ना की तरफ़दारी लेते देख गोरा झट अपनी कार में वापिस जा बैठा। जब तक उसने अपनी बेल्ट बांधी और कार को स्टार्ट किया, बत्ती फिर लाल हो गई। इस बार अन्य भोंपुओ की आवाज़ में पन्ना के भोंपू की आवाज़ भी शामिल थी।

भोंपू बजा कर पन्ना को लगा कि जैसे किसी ने उसकी पीठ खुजला दी हो अथवा उसके ज़ख़्म पर किसी ने मरहम रख दिया हो। मन की भड़ास निकली तो उसका दिमाग़ ठिकाने आया। गोरे के आगे ही सड़क पर पीले रंग का बक्सा बना हुआ था और सड़क के नियमों के अनुसार, वह तब तक आगे नहीं बढ़ सकता था जब तक कि उसके आगे का रास्ता साफ़ न हो। बेचारा गोरा निर्दोष था। पीले बक्से में आ खड़े होने पर उसको ज़ुर्माना भरना पड़ सकता था किंतु लोग नियमों की परवाह कहाँ करते हैं, विशेषतौर पर विदेशी। ख़ैर, अब पन्ना मन ही मन परेशान थी कि 'पीनस' वाली बात वह आदित्य और आशिमा को कैसे बतायेगी? कोई भी उसका यकीन नहीं करेगा। आदित्य यदि 'गूगल सर्च' करे तो उन सभी नेमप्लेट्स के नाम देख सकता है जो ख़रीदे जा सकते हैं; यदि उसे ‘पीनस’ नहीं मिला तो इसका अर्थ यही होगा न कि यह नम्बर किसी के पास है। पन्ना ने सोचा कि इतना सिर दर्द मोल लेने की क्या आवश्यक्ता है? कुछ बातें खुद तक ही रहने देनी चाहिएं, अपने या अपनी सहेलियों के मनोरंजन के लिये।

‘ओह नो, वाट द हैल?’ सड़क के बीचों-बीच एक गड्ढे में पन्ना की कार का पहिया धंस गया और घर्र-घर्र करने लगा। लोग इन्हीं गड्ढों के बहाने काउंसिल से काफ़ी पैसा ऐंठते हैं। अपने नुकसान को पूरा करने के लिये वह भी काउंसिल को लिखेगी. जो सरकार लंदन का परिवहन नहीं संभाल पा रही वो ओलम्पिक्स का ट्रैफ़िक कैसे संभाल पाएगी? जिधर जाओ, सड़कें खुदी पड़ीं हैं और कारीगर नदारद। लंदन में घुसने के ही आठ पाउंड देने पड़ते है; सुनने में आ रहा है कि यह फ़ीस बढ़ाकर अब बारह पाउंड होने वाली है।

‘भैंजी, इन कौंट्रक्टर्स और काऊंसिल की मिली भगत है जी, ये सड़कें इंटैन्शनली खोद कर छोड़ दी जाती हैं।’ अपनी प्यारी हौंडा-सिविक को धोते हुए पन्ना के पड़ौसी चमनलाल कह रहे थे। उन्होंने अपनी नंबर-प्लेट (सी-11-एम-ए-एन) पर गयारह के दो अंकों के बीचों बीच एक काला बिंदु लगा दिया था, जिसकी वजह से 11 का अंक ‘एच’ जैसा दिखने लगा था; दूर से देखें तो लगता था कि ‘चमन’ लिखा हो।

‘रोड-टैक्स, इनश्योरैंस, एम-ओ-टी, ब्रेकडाउन-कवर, कंजैशन-चार्ज, रैज़ीडैंट पर्मिट और उस पर ये रोज़ रोज़ के ज़ुर्मानें; हम लोग इन्हें इतना पैसा देते हैं, क्या इन टूटी सड़कों के लिए?’ परेशान पन्ना बोली।

‘भैंजी, आप तो मुझे यह बताओ कि यह पैसा जाता कहाँ है?’

‘क्या कहें, भाई साहब, सड़कों पर साइन-बोर्ड तक तो ठीक नहीं हैं, इन्हें तो बस लोगों को कनफ्यूज़ करके पैसे ऐंठने से मतलब है।’

‘मेरे बेटे ने तो जी अपनी कार फ्रांस में रजिस्टर्ड करा रखी है ताकि यहाँ लगे ज़ुर्माने न भरने पड़ें। आप भी अपनी कार को विदेश में रजिस्टर्ड करा लो तो आपकी बहुत बचत हो जाएगी।'

‘न भैय्या न, कहीं किसी को पता लग गया तो कौन कोर्ट के चक्कर लगाएगा?’

‘अरे, आप तो यों ही डर रहीं हैं, कुछ नहीं होता। बड़ी-बड़ी कंपनियों के चेयरमैन और प्रैसीडैंट्स खुल्लम-खुल्ला मिलियंस ऑफ़ पाउंड्स डकार जाते हैं, उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता। इनसे तो बस ओपन-डिसकशंस करवा लो, ऐक्शन के नाम पर ज़ीरो हैं ज़ीरो।'

‘भाई साहब, पौलिटिशियंस को भी तो पटा कर रखते हैं ये लोग। जानते हुए कि बेईमान हैं, सरकार उन्हें उपाधियां देती रहती है, ‘लौर्ड ये’ और ‘लौर्ड वो’; ‘सर ये’ और ‘सर वो,’ पन्ना ने भी उसकी हां में हां मिलाई।

‘पूरी दुनिया में मज़ाक उड़वा रहे हैं अपना।’ 

‘जी बिल्कुल जी, अपने यहाँ की घूसख़ोरी और बेइमानी को चटाई के नीचे छिपा कर, दूसरे देशों की बघिया उधेड़ते फिरते हैं ये गोरे।’

'वाइट-कॉलर्ड कर्रप्शन है।'

‘इनसे अपना छंटाक भर इंगलैंड तो संभलता नहीं, हमारे इतने बड़े देश की बुराई करते फिरते हैं।’

दोनों पड़ोसियों ने गप्पों का मज़ा लेना शुरु ही किया था अंदर से आदित्य और आशिमा की मिली-जुली हँसी सुनाई दी। न जाने क्यों ये बच्चे किसी की बुराई सुनकर राज़ी नहीं हैं; आलोचना को सुधार की नींव माना जाना चाहिए।

किसी तरह ट्रैफ़िक खुला और पन्ना बाईं ओर मुड़ गई। अगली ही ट्रैफिक-बत्ती पर पन्ना दाईं लेन में आना चाह रही थी कि पीछे से एक लैमबुगीनी (पी-8-डब्ल्यू-ई-आर) यानि कि ‘पौवर’ उसके साथ आ खड़ी हुई। लैमबुगीनी जैसी कार को इस शक्तिशाली नेम-प्लेट की क्या आवश्यक्ता थी?

पन्ना के आगे की लेन में कारें पार्कड थीं सो उसे थोड़ी सी परेशानी हुई कि कहीं ‘पौवर’ उसके आगे न आ जाए। पन्ना का मार्गाधिकार (वे औफ़ राइट) था, वह क्यूं उसे रस्ता दे? सिर्फ़ इसलिए कि वह गोरा है और उसके पास एक पौश कार है?  फिर सोचा कि वह क्यूं पंगा ले किंतु जैसे ही बत्ती हरी हुई, उसने एक्सिलेटर दबाया और सर्र से आगे बढ़ गई। बाईं और इंगित करते हुए ‘पौवर’ भी खुंदक में पन्ना की डिक्की से आ चिपकी और उसे 'टेल' करने लगी; पन्ना की इतनी हिम्मत कि उसको रस्ता न दे? पन्ना ने सोचा कि स्टुपिड इडियट को आगे जाने देना चाहिए था किंतु यह कहाँ का इंसाफ है कि अक्खड़ व्यक्ति से डरकर लोग दुबक जायें?

ज़ाहिर है कि ‘पौवर’ का चालक रईस मां-बाप का इकलौता बेटा होगा, जो जीवन भर अपने से नीचे वाले लोगों को रौंदता हुआ अपनी ही चलाता आया होगा। यह लैमबुगीनी शायद उसके पच्चीसवें जन्मदिन का तोहफ़ा होगी। अप्पर-क्लास में पैदा हुआ, प्राईवेट स्कूल में पढ़ा-बढ़ा, रईसों के बच्चों के साथ उठा बैठा, ऊंचे ओहदे वाले लोगों से संबंध रहे, शौक के लिए धंधे खोले, बंद किये और आज भी वह हवा से बातें करता जा रहा था कि पन्ना ने अपनी थर्ड-क्लास फ़िएट से उसका मुकाबला करने की जुर्रत की, ‘हाउ डेयर!’ वह भी एक सरकारी स्कूल की शिक्षायाफ़्ता, मिडल-क्लास की मिडल-ऐजेड अवकाश-प्राप्त अध्यापिका ने, जिसने एक मिडल-क्लास सरकारी नौकर से विवाह किया, दो बच्चे पैदा किये; जो उसे सुनाने में संकोच तक नहीं करते कि वे उनकी सैक्स की भूख का परिणाम हैं; जिसका पति एक जवान पड़ोसन के साथ खुल्ल्म-खुल्ला घूमता रहता है, जिस औरत ने बच्चों को वे सभी सुविधाएं दीं जो वह स्वयं कभी भोग नहीं पायी, रिटायर होने के बाद जो दो कमरों के मकान में अकेली रह रही है, जिसे पेंशन के अतिरिक्त यातायात-पास, स्वास्थय संबंधी सुविधाएं मुफ़्त में मिलने लगीं हैं; जो समय बिताने के लिए एक नाशुक्री चैरिटी के लिए काम करती है और सोचती है कि इस जीवन का औचित्य आख़िर है क्या?

फ़िलहाल तो पन्ना सतर्क हो गई. कभी-कभी स्वयं वह भी ऐसी बेवकूफ़ियां कर बैठती है, जो घातक सिद्ध हो सकती हैं। यह उन दिनों की बात है जब पन्ना ने नया-नया ड्राइविंग टैस्ट पास किया था। सुना था कि जो हैंगर-लेन के चौराहे पर विजय पा ले, संसार में वह कहीं भी गाड़ी चला सकता है। पन्ना की समझ में यह कभी नहीं आया कि इसे चौराहा कहते ही क्यूं हैं; दसियों रस्ते इस दायरे में से निकलते हैं। एक ज़माने में जब यह दस-राहा बत्तियों से संचालित नहीं था, यहाँ हर रोज़ दुर्घटनाएं हुआ करती थीं। दुर्भाग्यवश, पन्ना को कहीं भी जाना होता है तो इसी दस-राहे से गुज़रना पड़ता है। अपनी एक सहेली, चांदनी के बेटे की जन्मदिन की पार्टी में उसे स्लाओ जाना था और ए40 इसी चौराहे से होकर निकलती है।

पन्ना को कार चलाते दसियों साल होने को आए किंतु उसने अभी तक अपने कार से 'एल' प्लेट (नया ड्राइवर) नहीं उतारी थी ताकि लोग यह सोचकर उसकी गल्तियों को माफ़ कर दें कि चालक अभी अनाड़ी है। पन्ना पूरी रात युद्धाभ्यास करती रही किंतु अगली सुबह उसे हौल उठने लगे; उसने सोचा कि छोड़ो क्यों मुसीबत मोल ले? किंतु मिष्ठान का प्रबंध पन्ना के ज़िम्मे था, जिसे हाथ में लेकर जाना असम्भव था।

पन्ना हैंगर-लेन तक तो पहुंच गई किंतु वहां से ए40 पकड़ना उसे दूभर लग रहा था; तेज़ी से आ-जा रही कारें उसे रस्ता नहीं दे रही थी। ‘एल-प्लेट’ देख कर लोग चुप थे किंतु वे कब तक शांत रहते? उसके पीछे कारों की एक लंबी क़तार लग गई थी। जान हथेली पर रखकर उसने अपना पूरा का पूरा सिर खिड़की के बाहर निकाल लिया कि कहीं तो कोई अंतराल नज़र आए; तेज़ी से ग़ुज़र रही कारें और ट्रक उसके सिर को आसानी से उड़ा ले जा सकते थे। हाथियों के बीच उसकी चींटी जैसी फिएट न जाने कैसे बच पाई।

वापिस जाने की घबराहट में वह पार्टी का मज़ा भी नहीं उठा सकी और लौटते वक्त हो ही गया जिसका उसे डर था; स्लाओ से निकलकर ए40 पकड़ते समय उसकी कार दाईं ओर से आती एक महिला की कार से टकरा गई। सीने से निकल कर पन्ना का दिल सड़क पर आ खड़ा हुआ। उसकी कार का दरवाज़ा ज़रा सा अंदर धंस गया था।

‘बेन, आइ एम रियलि रियलि सौरी, आइ सिंसेयरलि होप यू आर नौट हर्ट,’ पन्ना अपराध-बोध से झुकी चली जा रही थी. दोनों ने चुपचाप कारों और बीमें की कंपनियों के ब्यौरों का आदान-प्रदान किया और अपनी-अपनी राह ली। यह पन्ना की पहली दुर्घटना थी और वह हैरान थी कि सब कुछ इतनी शांति से निपट गया था।

‘यू मस्ट नेवर एवर ऐक्सैप्ट यौर लाएबिलिटि.’ सुबह कार-मैकेनिक ने पन्ना को आदित्य के सामने ही लताड़ दिया था कि उसे किसी भी हालत में अपना दोष स्वीकार नहीं करना चाहिए था।

'वेन मम ड्राइव्स, औल दैट वन कैन डू इज़ टू होल्ड ऑन एंड प्रे फॉर लाइफ़।' आदित्य को पन्ना का मज़ाक उड़ाने का बस एक मौका चाहिए. पन्ना को लगता है कि वह एक 'सेफ ड्राइवर' है, न जाने क्यों बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते हैं? 

पन्ना के लिए हैरानी और ख़ुशी की बात यह थी कि जिस गोरी की कार के साथ दुर्घटना हुई थी, वह इस मामले को चुपचाप रफ़ा-दफा करना चाहती थी और वह भी बिना कुछ लिए-दिए। कार-मैकेनिक के अनुसार या तो उसकी कार चोरी की होगी या फिर गोरी बिना किसी बीमा-पौलिसी के कार चला रही होगी। इस मामले में गोरी से पैसे ऐंठे जा सकते थे किंतु पन्ना ‘हैंकी-पैंकी’ में विश्वास नहीं रखती।

सौभाग्यवश, घर से दफ्तर के बीच उसे किसी मोटर-वे से नहीं गुज़रना पड़ता पर धीमी गति से चलता शहरी ट्रैफिक व्यक्ति को पागल करने के लिए काफ़ी है। दाईं ओर से एक कार सर्र से निकल गई, मर्सेडीज़-एस-एल-आर जिसकी नंबर-प्लेट बड़ी मज़ेदार थी, 5-वन-आर। एक नज़र में पढ़ें तो लगता था कि जैसे 'सर' लिखा हो। यह कार अवश्य किसी असली ‘सर’ की होगी क्योंकि पन्ना ने सुना है कि जबकि 'लौर्ड' के बच्चे भी इस उपाधि के हक़दार होते हैं, ‘सर’ के बच्चों को यह उपाधि हासिल करनी पड़ती है. 'सर' का चालक भारत सरकार का कोई अधिकारी भी हो सकता है; जहां इंग्लैंड से अधिक नौकरशाही का रिवाज़ है। पन्ना को एक बार भारत-भवन के किसी उत्सव में जाने का मौका मिला था; जिसे देखो, ‘येस सर,’ ‘नो सर,’ अलाप रहा था।

'यू स्टुपिड बिच,' कोई पास से गुज़रते हुए चिल्लाया तो पन्ना का ध्यान सड़क पर वापिस आया, मोटरवे पर वह बैलगाड़ी की रफ्तार से चली जा रही थी। कोई गाली न दे तो क्या करे? उस शानदार कार का नम्बर भी शानदार था (डी4एन-टी-ई) यानि कि ‘डांटे’। नम्बरप्लेट पर इतने पैसे ज़ाया खर्च करने की जुर्रत एक पुरुष ही कर सकता है। चालक पर एक नज़र डालने के लिए पन्ना दाईं ओर की लेन में आ गई; उसने ठीक ही सोचा था; वह एक नवयुवक था। अपने पिछले जन्मदिन पर पन्ना ने आदित्य-आशिमा से अपेक्षा की थी कि वे उसे 'पन्ना' नाम की नेमप्लेट खरीद कर देंगे. वह जो उनकी हर छोटी-बड़ी ख़्वाहिशें पूरी करती आई है; उनसे अपेक्षा न रखे तो किससे रखे? ख़ैर, इस थर्ड-क्लास कार पर नई तख़्ती क्या जंचती?

अपनी रफ्तार को बढ़ाकर पन्ना ‘डांटे’ को पीछे छोड़ आई किंतु उसकी ख़ुशी क्षणभंगुर थी; पल भर में युवक पन्ना की कार को लगभग छूता हुआ सर्र से उसके आगे निकल गया; घबरा गई थी पन्ना। आदित्य ने उसे कई बार समझाया है, ‘वाए टेक पंगा, मम, इफ़ समथिंग हैप्पन्स, यू विल सफ्फर फौर लाइफ़।’  दुर्घटनाओं और रोड-रेज का मुख्य कारण अहं और अहंकार ही होते हैं।

मार्बल-आर्च के पास आकर पन्ना ने सोचा कि आज वह बेज़वाटर-रोड से निकलकर ए40 पकड़ लेगी और हार्लस्डन होती हुई विल्सडन पहुंच जाएगी। घर जाने के लिए यह रास्ता दो मील लंबा ज़रूर है किंतु इस पर ट्रैफ़िक कहीं रुकता नहीं है।

एक भरे हुए रेल के डिब्बे में बैठ कर सबकी आंखों के सामने मेकअप करना भी अपने आप में एक कला है किंतु लाल बत्ती पर खड़े होकर मेक-अप करते पन्ना ने किसी को पहली बार देखा था। उस गोरी के पीछे वाले चालक ने ज़ोर से भोंपू बजा कर उसे जताया कि बत्ती हरी हो चुकी थी। आधी लिप्स्टिक लगाए तो महारानी चलने से रही; फिर उसे अपनी भंवों पर पैंसिल भी तो फिरानी थी। ‘लोगों को भी शांति नहीं है, दफ़्तर में बेचारी को समय मिले न मिले,’  पन्ना मुस्कुराई. सुना है कि यहाँ के सरकारी-कर्मचारी टुथ-ब्रुश भी दफ़्तर में ही जाकर करते हैं. जहां दफ़्तर में प्रविष्ट हुए, उसी पल से तनख़्वाह मिलनी शुरु. पन्ना सरकारी-नौकर होती तो वह नहाना-धोना, मेक-अप, नाशता, सब दफ़्तर के समय में ही करती. पन्ना की चैरिटी तो उसे ओवरटाइम के पैसे भी नहीं देती।

तभी एक मोटर-साइकिल वाला गोरी की खिड़की के नज़दीक आ खड़ा हुआ और लगा उसे ग़ौर से निहारने। युवती ने खिड़की से अपना सिर निकालकर उसे भला बुरा कहा किंतु हेलमेट पहने उस व्यक्ति के पल्ले कुछ न पड़ा। झक मारकर युवती ने मेक-अप बंद किया किंतु मोबाइल फ़ोन कान पर लगा लिया।

पन्ना के आगे थी अफ्रीकी-जात के स्थूल कूल्हों जैसी एक कार जिसके नेम-प्लेट पढ़ने के बजाय वह इस कार की चालिका को देखना चाह रही थी जो रंग बिरंगे फ़ोन को कान से लगाए किसी से ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रही थी। उसके मोटे-ताज़े कंधे बिल्कुल नंगे थे।

‘वाट्स यौर प्राब्लम, बिच?’ पन्ना को अपनी ओर देखते काली चिल्लाई।

‘आई हैव नो प्राब्लम, वाट्स यौर्स?’ पन्ना ने भी उसी अदा में जवाब दिया।

‘वाए आर यू ओगलिंग एट मी देन?’

‘बिकौज़ आई हैव नेवर सीन एनिथिंग लाइक यू बिफ़ोर।’ पन्ना उसे बिफ़रता हुआ छोड़कर आगे तो निकल

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