हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

मैं नर्क से बोल रहा हूँ!

 (विविध) 
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रचनाकार:

 हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

हे पत्थर पूजने वालो! तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते, उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो। जिंदगी-भर तुम जिससे नफरत करते रहे, उसकी कब्र पर चिराग जलाने जाते हो। मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू-भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगाजी ले जाते हो। अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण सत्कार करते हो, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूँ। मैं नर्क से बोल रहा हूँ।

मगर मुझे क्या पड़ी थी कि जिंदगी भर बेजुबान रहकर, यहां नर्क के कोने से बोलता! पर यहां एक बात ऐसी सुनी कि मुझ अभागे की मौत को लेकर तुम्हारे यहां के बड़े-बड़े लोगों में चखचख हो गई। मैंने सुना कि तुम्हारे यहां के मंत्री ने संसद में कहा कि मेरी मौत भूख से नहीं हुई, मैंने आत्महत्या कर ली थी। मारा जाऊँ और खुद ही मौत का जिम्मेदार ठहराया जाऊँ?

भूख से मरूं और भूख को मेरे मरने का श्रेय न मिले? 'अन्न! अन्न!' की पुकार करता मर जाऊँ और मेरे मरने के कारण में भी अन्न का नाम न आए? लेकिन खैर, मैं यह सब भी बर्दाश्त कर लेता। जिंदगी-भर तिरस्कार का स्वाद लेते-लेते सहानुभूति मुझे उसी प्रकार अरुचिकर हो गई थी, जिस प्रकार शहर के रहने वाले को देहात का शुद्ध घी, लेकिन आज ही एक घटना और यहां से लोक में घट गई।

हुआ यह कि स्वर्ग और नर्क को जो दीवार अलग करती है, उसकी सेंध में से आज सवेरे मेरे कुत्ते ने मुझे देखा और 'कुर-कुर' करके प्यार जताने लगा। मेरे आश्चर्य और क्षोभ का ठिकाना न रहा कि मैं यहां नर्क में और मेरा कुत्ता उस ओर स्वर्ग में! यह कुत्ता-मेरा बड़ा प्यारा कुत्ता, युधिष्ठिर के कुत्ते से अधिक! जब से मेरी स्त्री एक धनी के साथ भाग गई थी, तभी से यह कुत्ता मेरा संगी रहा, ऐसा कि मरा भी साथ ही। कभी मुझे छोड़ा नहीं इसने।

बगल का सेठ इसे पालना चाहता था, सेठानी तो इसे बेहद प्यार करती, पर यह मुझे छोड़कर गया नहीं, लुभाया नहीं। सो मुझे सुख ही हुआ कि वह स्वर्ग में आनंद से है, पर मेरे अपने प्रति किए गए अन्याय को तो भुलाया नहीं जा सकता और भाई यह तुम्हारा मृत्युलोक तो है नहीं, जहां फरियाद नहीं सुनी जाती। जहां फरियादी को ही दंड दिया जाता है। जहां लाल फीते के कारण आग लगने के साल भर बाद बुझाने का ऑर्डर आता है। यहां तो फरियाद तुरंत सुनी जाती है। सो मैं भी भगवान के पास गया और प्रार्थना की, 'हे भगवन्! पृथ्वी पर अन्याय भोगकर इस आशा से यहां आया कि न्याय मिलेगा, पर यह क्या कि मेरा कुत्ता तो स्वर्ग में और मैं नर्क में! जीवन भर कोई बुरा काम नहीं किया। भूख से मर गया, पर चोरी नहीं की। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया और यह कुत्ता- जैसे कुत्ता होता है वैसा ही तो है यह। कई बार आपका भोग खाते पिटा यह! और इसे आपने स्वर्ग में रख दिया।'

और भगवान ने एक बड़ी बही देखकर कहा कि इसमें लिखा है कि तुमने आत्महत्या की! मैंने कहा कि नहीं महाराज, मैं भूख से मरा। मैंने आत्महत्या नहीं की, पर वे बोले, 'नहीं, तुम झूठ बोलते हो। तुम्हारे देश के अन्न मंत्री ने लिखा है कि तुमने आत्महत्या की। तुम्हारे शरीर के पोस्टमार्टम से यह बात सिद्ध हुई है।' और भगवान आसमान से गिरते-गिरते बचे, जब मैंने कहा कि महाराज, यह रिपोर्ट झूठ है। मेरा पोस्टमार्टम हुआ ही नहीं। अरे, मैं तो जला दिया गया था। इसके दस दिन बाद संसद में प्रश्नोत्तर हुए, तो क्या मेरी राख का पोस्टमार्टम हुआ? और तब मैंने उन्हें पूरा हाल सुनाया।

लो, तुम भी सुनो। तुम नहीं जानते मैं कहाँ जिया, कहाँ रहा, कहाँ मरा? दुनिया इतनी बड़ी है कि कोई किसी का हिसाब नहीं रखता। और तुम क्या जानो कि जब मेरी सांस चलती थी, तब भी मैं जिंदा था। मैं इस अर्थ में जीवित था कि मैं रोज मृत्यु को टालता जाता था। वास्तव में, तो मैं जन्म के पश्चात एक क्षण ही जीवित रहा और दूसरे क्षण से मेरी मौत शुरू हो गई। तो बाजार की उस अट्टालिका को तो जानते हो। उसी के पीछे एक ओर से पाखाना साफ करने का दरवाजा है और दूसरी ओर दीवार के सहारे मेरी छपरी। अट्टालिका का मालिक मेरी छपरी तोड़कर वहां भी अपना पाखाना बनाना चाहता था। अगर मैं मर न जाता, तो गरीब आदमी की झोंपड़ी पर अमीर के पाखाने की विजय भी इन आंखों से देखता। बस, यहीं झोंपड़ी में रहा मैं। मेरे आस-पास अन्न-ही-अन्न था। दीवार के उस पार से जो चूहे आते थे, वे दिन-पर-दिन मोटे होते जाते और दो रोज तक वे इसलिए नहीं आए कि निकलने का थोड़ा मार्ग बनाते रहे। पर मैं फिर भी भूखा रहा। बेकार था। अनाज दस रुपये सेर था। इससे तो मेरे लिए मौत सस्ती थी। आखिर मेरी मौत भी आई। जिस दिन आई, उस दिन अट्टालिका के उस पार वाले रईस के लड़के की शादी थी। बड़ा अमीर था। सारा गांव जानता था कि उसके पास हजारों बोरे अन्न थे, पर कोई कुछ नहीं कहता था। पुलिस उसकी रक्षा करती थी। और उस दिन मेरी मौत धीरे-धीरे काला पंजा बढ़ाती आती थी।

- हरिशंकर परसाई

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