जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

जनता की सरकार

 (विविध) 
Print this  
रचनाकार:

 जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली

एक तिनका सड़क के किनारे पड़ा हुआ दो आदमियों की बातचीत सुन रहा था।

उनमें से एक तो उसका रोज़ का साथी जूते गाँठने वाला एक मोची था और दूसरा राहगीर, जो अपने फटे जूते निकालकर मोची से पूछ रहा था—'क्यों, इनकी मरम्मत कर दोगे? क्या लोगे?’ 
मोची ने कहा—‘छह आने लूँगा, बाबू साहब।

राहगीर बोला—'दो आने दूँगा।‘

मोची कहने लगा—'बाबू साहब, आप भी कैसा अंधेर करते हो? देखते नहीं, महंगाई कैसी हो रही है! और आप दो आने देने को कहते हैं।‘

राहगीर को गुस्सा आ गया--‘ज़बान संभालकर बात करो जी! क्या तुम्हारे अकेले के लिए महंगाई आई है? दो आने में सीते हो तो सीओ, नहीं तो तुम्हारी मर्जी।‘ और वह चलने लगा।
मोची ने डांट खाकर भी राहगीर को बुलाया और कहा—'अच्छा, दो बाबू साहब अपने जूते।‘

जब राहगीर जूतों की मरम्मत कराके और उन्हें पहनकर चला गया तब तीनके ने मोची से पूछा—'क्यों भाई, तेरी वह मर्जी थी या मजबूरी?’
मगर तीनका क्या आदमी था, जो उसकी बात मोची समझता?

और तिनके को क्या मालूम कि आदमी ने ‘जनता की सरकार’ नामक जो संस्था कायम की है, उसकी जुबान में मजबूरी के माने होते हैं मर्जी।

-वनमाली
[ वनमाली समग्र सृजन, मेधा बुक्स, 2011 ]

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश