पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्त्र गुना अच्छी है। - अज्ञात।

सैलाब | लघुकथा

 (कथा-कहानी) 
Print this  
रचनाकार:

 लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

पिता की मृत्यु के बाद के सारे कार्य संपन्न हो चुके थे। अब तेरहवीं होनी थी और अगले दिन मुझे नौकरी पर वापस ग्वालियर रवाना हो जाना था.. बस एक ही डर बार बार मुझे बुरी तरह परेशान कर रहा था और उस दृश्य की कल्पना मात्र से सहम उठता था मैं.. और ये दृश्य था मेरी इस बार की विदाई का ..जब दुख का पहाड़ टूट पड़ा हो..हर बार ग्वालियर रवाना होने के वक्त माँ फूटफूटकर रोने लगती थीं.. और मैं दो तीन दिन अवसाद मे रहता था..मोबाइल भी नहीं थे उन दिनों..। यूं भी कोई भी रिश्तेदार आता तो बातचीत के दौरान माँ के आँसू  ज़रूर निकलते।

दरअसल मेरे एक भाई की अचानक मौत ने उन्हें हमेशा के लिए बेहद आहत कर दिया था और भाई भी ऐसा जो ध्रुव या प्रहलाद का अवतार था जिसे पूरी गीता और लगभग पूरा रामचरित मानस कंठस्थ था और अंताक्षरी विजेता के रूप मे पूरे ज़िले मे जिसकी प्रतिष्ठा थी..माँ यूं भी बहुत भावुक थीं और आँसू उनके जीवन का हिस्सा बन गए थे..

तेरहवीं संपन्न हो गई थी.. कल मेरी ट्रेन थी और मेरे मन मस्तिष्क में वही विदाई.. और माँ के आंसुओं का सैलाब उमड़ रहा था..

आखिर विदाई के कठिन पल आ गए थे.. बड़े भाई साहब रिक्शा ले आए थे..मैं अटैची लेकर सीढ़ियां उतरने लगा था..माँ साथ साथ थीं.. भाभीजी और बहनें पीछे पीछे थीं.. सीढ़ियाँ उतरते ही गलियारे में अचानक माँ ने कंधे पर हाथ रखा था..”होनी को जो मंजूर था.. हो गया.. जानती हूँ तुम भी बहुत भावुक हो..ज़रा भी दुख न करना.. मन लगा कर काम करना.. किसी बात की भी चिंता मत करना..

न चाहते हुए भी मैं रुआंसा हो गया था.. मैंने कातर दृष्टि से माँ को देखा था..

माँ की आंखों मे एक भी आँसू नहीं था..!!!

-लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश