जब भी देखूं, आतप हरता। मेरे मन में सपने भरता। जादूगर है, डाले फंदा। क्या सखि, साजन? ना सखि, चंदा।
लंबा कद है, चिकनी काया। उसने सब पर रौब जमाया। पहलवान भी पड़ता ठंडा। क्या सखि, साजन? ना सखि, डंडा।
उससे सटकर, मैं सुख पाती। नई ताजगी मन में आती। कभी न मिलती उससे झिड़की। क्या सखि, साजन? ना सखि, खिड़की।
जैसे चाहे वह तन छूता। उसको रोके, किसका बूता। करता रहता अपनी मर्जी। क्या सखि, साजन? ना सखि, दर्जी।
कभी किसी की धाक न माने। जग की सारी बातें जाने। उससे हारे सारे ट्यूटर। क्या सखि, साजन? ना, कंप्यूटर।
यूँ तो हर दिन साथ निभाये। जाड़े में कुछ ज्यादा भाये। कभी कभी बन जाता चीटर। क्या सखि, साजन? ना सखि, हीटर।
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला [ आनन्द मंजरी, 2019, राजस्थानी ग्रन्थागार, राजस्थान] |