यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।

दोस्त एक भी नहीं जहाँ पर 

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 भगवतीचरण वर्मा

दोस्त एक भी नहीं जहाँ पर, सौ-सौ दुश्मन जान के, 
उस दुनिया में बड़ा कठिन है चलना सीना तान के।

उखड़े-उखड़े आज दिख रहे हैं तुमको जो, यार, हम, 
यह न समझ लेना जीवन का दॉव गए हैं हार हम। 
वही स्वप्न नयनों में, मन में वही अडिग विश्वास है, 
खो बैठे हैं किन्तु अचानक अपना ही आधार हम।

इस दुनिया में जहाँ लोग हैं बड़े आन के बान के, 
हम तो देख रहे हैं तेवर दो दिन के मेहमान के।|

डगमग अपने चरण स्वयम् ही, इतना हमको ज्ञान है। 
निज मस्तक की सीमा से भी अपनी कुछ पहचान है। 
पर सक्षम है कौन यहाँ पर? या किसमें सामर्थ्य है ? 
हमने तो पाई आँसू से भीगी हर मुसकान है।

मृत्यु चुनौती जहाँ दे रही है जीवन को हर तरफ, 
कुछ अजीब-से खेल वहाँ पर मान और अपमान के।

यह मानव वैसा ही भोला, वैसा ही कमज़ोर है,
और नियत की अनजानी-सी वैसी कठिन हिलोर है 
किन्तु मिटाने का, मिटने का क्रम है बेहद बढ़ गया, 
और बढ़ गया यारो, बेहद इस दुनिया का शोर है,
हमको लगता आ पहुंचे हैं हम मरघट के देश में 
लोग जहाँ पर पागल बनकर आदी हैं विषपान के।

युगों-युगों से यह मानव है उठता-गिरता चल रहा, 
यह प्राणों का दीप यहाँ पर बुझ-बुझकर फिर जल रहा 
यहाँ चेतना अमर, भावना अमर, अमर विश्वास है, 
इसी अमरता की छाया में प्रेम निरन्तर पल रहा। ,

किन्तु घृणा से दूषित, हिंसा से सहमी हर साँस है, 
और पहन रक्खे है हम सबने जामे शैतान के।

यह भी है क्या बात कि इसपर सर पटकें हम व्यर्थ ही
और देखते रहें दूसरों के हम सदा अनर्थ ही 
एक दर्द जो उठ पड़ता है कभी-कभी वह भूल है,
सच तो यह, हम नहीं जानते हार-जीत का अर्थ ही।

वैसे वैभव और सफलता से हमको भी मोह है 
पर क्या करें कि हम कायल है धर्म और ईमान के 
हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के।

                                   -भगवतीचरण वर्मा 
                                         [1955]

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश