जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 अजातशत्रु

कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद!
ये बोली तो युग बोला ये गायी तो सबने गाया
इसने ही आजादी का परचम सीमा पर लहराया
वंदे मातरम बन कर गूंजी और तिरंगा थाम लिया
बिस्मिल, शेखर, भगत सिंह, मंगलपांडे का नाम लिया
पराधीनता की बेड़ी से करने को आज़ाद
कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद!

ये बच्चन की मधुशाला है, दिनकर का रश्मिरथ है
सूर, कबीरा, तुलसी, मीरां सबका ही ये तीरथ है
सरयू के तट पर अवधि की चौपाई मुस्काती है
ज्यूँ रुबाई उर्दू की बाहों में आकर खो जाती है
नहीं बनी शागिर्द किसी की सबकी है उस्ताद
कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता जिंदाबाद!

ये गरीब की आहों में आँसू में दुःख में रहती है
माँ के आँचल से अविरल गंगा-जमना बन बहती है
इसको गाकर हर किसान, मजदूर, सिपाही झूमा है
‘रंग दे बसंती चोला' ने फांसी का फंदा चूमा है
क्रांति संस्कारों की धरती करने को आबाद
कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद!

पाथल और पीथल की गाथा जन कवियों ने गाई है
सूर्यमल्ल मिश्रण की अग्नि, यही चंद बरदाई है
मत समझो हल्दी घाटी की बात जरा-सी छोटी है
परम प्रतापी महाराणा की अरे घास की रोटी है
शबनम का कतरा बन जाती कभी बनी फौलाद
कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद!

कुछ कवियों की वाणी लेकिन सरकारी हो जाती है
माँ के मंदिर की वीणा ज्यों दरबारी हो जाती है
स्वर्णिम इसे शिलालेख हों, करती ये परवाह नहीं
पदम् पुरस्कारों की भी तो रहती इसको चाह नहीं
तन जाती है भरी सभा में कह कर मुर्दाबाद
कविता ज़िन्दाबाद हमारी कविता ज़िन्दाबाद!

-अजातशत्रु

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