सो गई है मनुजता की संवेदना गीत के रूप में भैरवी गाइए गा न पाओ अगर जागरण के लिए कारवाँ छोड़कर अपने घर जाइए
झूठ की चाशनी में पगी जिन्दगी आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा कह दिया, इसलिए लड़खड़ाने लगी सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन उसको शब्दों का परिधान पहनाइए काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण चन्द सिक्कों में बिकती रही जिन्दगी और नीलाम होते रहे आचरण लेखनी छुप के आँसू बहाती रही उनको रखने को गंगाजली चाहिए राजमहलों के कालीन की कोख में कितनी रम्भाओं का है कुँवारा रुदन देह की हाट में, भूख की त्रासदी और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए भूख के प्रश्न हल कर रहा जो, उसे है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे और चाहे, कि युग उसको सम्मान दे ऐसे भूले पथिक को, पतित पंक से खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए
-डा० जगदीश व्योम ईमेल : jagdishvyom@gmail.com |