होली जैसा त्यौहार दुनिया में कहीं नहीं है। कुछ देशों में कीचड़, धूल और पानी से खेलने के त्यौहार जरूर हैं लेकिन होली के पीछे जो सांसारिक निर्ग्रन्थता है, उसकी समझ भारत के अलावा कहीं नहीं है। निर्ग्रन्थता का अर्थ ग्रंथहीन होना नहीं है। वैसे हिंदुओं को मुसलमान और ईसाई ग्रंथहीन ही बोलते हैं, क्योंकि हिंदुओं के पास कुरान और बाइबिल की तरह कोई एक मात्र पवित्र ग्रंथ नहीं होता है। उनके ग्रंथ ही नहीं, देवता भी अनेक होते हैं। मुसलमान और ईसाई अपने आप को अहले-किताब याने ‘किताबवाले आदमी' बोलते हैं।
होली के संदर्भ में निर्ग्रन्थ होने का मतलब है- ग्रंथिरहित होना। याने गांठ रहित होना। सब गांठों को खोल देना। मानव मन में जितनी भी चेतन और अचेतन गांठे हैं, उन सबको खोल देने का त्यौहार है- होली। इसीलिए होली के दिन लगभग सभी मर्यादाएं शिथिल पड़ जाती हैं। अराजकता का-सा माहौल बन जाता है। पुरूष और स्त्रियां आपस में और एक-दूसरे के साथ भी काफी छूट ले लेते हैं। भाँग, अफीम, शराब का भी दौर खुले में चलता है। होली के नाम पर अश्लीलता और फूहड़पन का नंगा नाच होता है। इसीलिए सभ्य और सुशिक्षित लोग खुद को अपने दड़बों में बंद कर लेते हैं। भाषा में जिसे ‘ग्राम्या दोष' कहते हैं, वही दोष इस त्यौहार पर भी मढ़ दिया जाता है। कह दिया जाता है कि यह कृषकों का त्यौहार है। इसे वे ही मनाएं और गाँवों में मनाएं।
लेकिन इस विश्व-विलक्षण त्यौहार को सचमुच हम निर्ग्रन्थता का त्यौहार बना सकते हैं, जैसा कि कभी वृंदावन और मथुरा में कृष्ण और गोपियां बनाती थीं। स्त्री-पुरूष संबंधों के बीच जाने-अनजाने पड़ने वाली गांठों को खोल देने का इससे बढ़िया त्यौहार क्या हो सकता है? यह मर्यादाहीनता का नहीं, चित्र-शुद्धि का पर्व है। अश्लीलता और फूहड़पन चित्र को हल्का नहीं करते, बोझिल बनाते हैं। होली का दिन रस, रंग, रूप, गंध और स्पर्श के अलौकिक और हार्दिक अनुभवों का त्यौहार है। क्या इसे हम इस रूप में मना सकते हैं?
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक |