प्राण रहते चाहता हूँ ओंठ पर नित गान रहते भाग्य का यह चक्र फिरता या न फिरता नभ बरसता फूल अथवा गाज गिरता जय-पराजय में अगर हम शीस उन्नत नष्ट शंका वज्र पुष्प समान सहते! प्राण रहते!!
कठिन क्षण में सहज गति होती हमारी और धीरज मति नहीं खोती हमारी प्रलय-पारावार वीचि-विलास होता ढंग से पतवार चलती जलधि-भर जलयान बहत ! प्राण रहते!!
लोग देते साथ अथवा छोड़ देते किन्तु हम नाता प्रलय से जोड़ लेते हाथ मानो पकड़कर तूफ़ान का हम बढ़ रही हर लहर को सोपान कहते! प्राण रहते!!
- भवानी प्रसाद मिश्र
[20 दिसंबर 1947] |