सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें, कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में, लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में, लक्ष्मी सर्जन हुआ कमल के फूलों में लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार सतत मानवी की अंगुलियों तेरा हो शृंगार, मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल, शकट चले जलयान चले गतिमान गगन के गान, तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे, सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर, भवन-भवन तेरा मंदिर है स्वर है श्रम की वाणी, राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी, सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल। तू ही जगत् की जय है तू है बुद्धिमयी वरदात्री, तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें, सुलग-सुलग री जोत, दीप से दीप जलें।
-माखनलाल चतुर्वेदी |