सिडनी से ही ब्रिसबेन गया था और भारत को आस्ट्रेलिया से एक रन से हारते देखकर लौट आया था। सिडनी में भारत का मैच पाकिस्तान से होना था और फिर क्रिकेट के दो सबसे पुराने प्रतिद्वन्द्वियों इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया का मुकाबला था। यानी काम के दिन दो थे और सिडनी में टिकना सात दिन था।
काफी समय था सिडनी को खंगालने के लिए और समझने के लिए कि जब एक देश के अपराधी दूसरे देश में भेजे जाते हैं और वहीं रहने को मजबूर होते हैं तो वे कैसा देश-समाज बनाते हैं। ब्रिसबेन में मैच के बाद के खाली दिन होटल की खिडकी से बल खाती डार्लिंग नदी और उसके बाद के विस्तार को देखते हए लगा था-महत्त्व की बात यह नहीं है कि आप क्या थे और आपको क्या मिला। महत्त्वपूर्ण यह है कि जो आपको मिला था उसका आपने क्या किया। अपने को फिर से बनाते हुए उसका क्या बनाया। क्रिकेट विश्व कप के बहाने आस्ट्रेलिया को देखने-समझने की यही अपनी लाइन होनी थी।
डार्लिंग हार्बर पर पार्क रॉयल में कमरा था। वहाँ से समद्र और उसके किनारे पर बसा सिडनी महानगर खूब दिखाई देता था। एक दिन तो जाकर सिडनी क्रिकेट ग्राउंड और स्टेडियम में अपने बैठने की जगह और वहाँ दर्शकों की सुविधाएँ आदि देख आया। दूसरे दिन जैसे अपना बैग रख के और सूट बूट न पहनकर क्रिकेट लेखक का चोला उतार दिया। धोती-कुरता और चप्पल पहनकर सबेरे जल्दी उतरा और पैदल चल निकला। सोचा था कि बीच में टैक्सी, ट्राम, रेल, बस जो भी मिलेगी ले लूँगा लेकिन जितना भी चल सकता हूँ, पैदल चलूँगा। किसी निश्चित जगह पहुँचना नहीं था इसलिए देखता-परखता और समझता चलता चला गया। थका तो किसी पार्क की बेंच पर बैठ गया या सड़क किनारे की इमारत से सटकर सुस्ता लिया। चलता चला गया तो सामने एक विशाल पुल उभर आया। पढ़ रखा था और फोटू में देख रखा था। यह वही विशाल सिडनी हार्बर ब्रिज था।
समुद्र पर मनुष्य के इस्पाती उद्यम की अद्भुत मिसाल । दाहिनी तरफ सिडनी का दूसरा मशहूर स्थान ऑपेरा हाउस। अपनी उत्तेजना में या समुद्र की ठंडी हवा के थपेड़े के कारण ऐसा आवेग महसूस किया कि पुल पर चलता चला गया। दूसरे सिरे पर ही जाकर रुका। बड़ी देर तक घूम-घूमकर चारों तरफ देखता रहा। फिर लगा कि कुछ खा लेना चाहिए। रेलवे स्टेशन पर बहत भीड़ थी। लोग दफ्तर जाने की जल्दी में थे। एक स्टॉल से सलाद लिया और बेंच पर बैठकर इत्मीनान से खाया। दफ्तर जाते लोगों और उनकी रेलगाड़ियों को देखता रहा। लंदन की ट्यूब में भी इसी तरह लोगों और उन्हें लाती, उतारती और ले जाती गाड़ियों को देखा है। मुझे लगा कि पहनावे, बोलचाल और चलने-फिरने में आस्ट्रेलियाई अंग्रेजों से कहीं अधिक अनौपचारिक और खुले हुए हैं। पैदल वापस पुल पार करने की इच्छा नहीं हुई। किसी भी स्टेशन का टिकट लेकर जो भी अगली रेलगाड़ी आई उसमें बैठ गया।
कोने की सीट पर बैठा था और पुल पर से ऑपेरा हाउस और उसके पार सिडनी महानगर दिख रहा था। अपने किसी भी महानगर से ज्यादा तरतीब और व्यवस्था वहाँ दिख रही थी। अचानक मुझे लगा कि मान लो सन बहत्तर में जेपी के सामने हथियार डालनेवाले चम्बल और बन्देलखंड के कोई छह सौ बागियों को अगर अंडमान निकोबार या ऐसे ही किसी द्वीप पर परिवार सहित भेज दिया जाता तो क्या होता? क्या वे मुम्बई या दिल्ली या ग्वालियर जैसा कोई महानगर खड़ाकर देते? या चम्बल घाटी जैसा बीहड़ संसार बनाते? उनके सरदारों-माधोसिंह और मोहरसिंह-को मैंने काफी नजदीक से जाना था। मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि वे आस्ट्रेलिया जैसा देश बना सकते हैं। अपनी चम्बल घाटी जैसा समाज भी बना सकते हैं या नहीं, इसमें भी मुझे सन्देह हुआ।
मैं नहीं जानता कि आत्मसमर्पण करनेवाले चम्बल बुन्देलखंड के बागियों की क्षमता में यह शक मुझे क्यों था। उन्हें तो वैसा मौका मिला ही नहीं जैसा इंग्लैंड के अपराधियों को आस्ट्रेलिया में मिला था। यानी अभी जिन्हें मैं देख रहा या उनके पूर्वजों को। जिन भारतीयों ने जावा, सुमात्रा, बाली, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि पूरब के देशों में जाकर अंगकोरवाट जैसे मन्दिर और बस्तियाँ बनाई क्या वे अंग्रेजों जैसे विस्तारवादी और उपनिवेशवादी थे। वे कौन लोग थे कहाँ से गए थे और क्यों गए थे? उत्तर भारत का इतिहास जो पूरे भारत का इतिहास मान लिया जाता है उसमें इन लोगों का वर्णन क्यों नहीं है? हमारी जातीय स्मृति में इन लोगों की यात्राओं और इनके वहीं रह जाने की याद क्यों नहीं है? क्या हम हमेशा बाहर से आनेवालों के हमलों या मेल-मिलाप के शिकार ही होते रहे हैं? जहाँ हम गए वहाँ के लोगों से हमारी मुठभेड़ या हमारे सम्मिलन का इतिहास हमारे पास क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि हमारा इतिहास भारत पर हमला करने या यहाँ बसकर राज हथिया लेनेवाले लोगों के वर्णनों से ही बनाया गया है? क्यों उन्हीं को प्रामाणिक स्रोत माना जाता है और हमारे अपने अनुभवों का कोई जिक्र तक नहीं होता?
इसी गुंतारे में पड़ा रेल से कहाँ और कब उतरा और कैसे होटल के कमरे पहुँच गया पता नहीं। आस्ट्रेलिया की यात्रा पर सिडनी के होटल के कमरे में होने और रज्जू बाबू को पुल पर से जाने और इन सब बातों की चर्चा में उलझाने की प्रतीति मुझे तभी हुई जब किसी ने दरवाजे पर खटकाकर सन्देश का एक पुर्जा दिया। मैं अपने पर चकित था क्योंकि जिन राजेन्द्र माथर से मैं ऐसे सजीव संवाद में पडा हआ था उनको गए कोई दस महीने हो चुके थे। जब सिडनी हार्बर पुल को पारकर रहा था तो मुझे बारबार गड़बड़ी का वह पुल याद आ रहा था जिस पर चलते-चलते हम यानी मैं और रज्जू बाबू बातों में ऐसे मशगूल थे कि ध्यान ही नहीं रहा कि पीछे से रेलगाड़ी आ रही है। जब वह बहुत पास आ गई और इंजिन ने सीटी मारी तो हम हड़बड़ाए। लकड़ी के फट्टों पर बेतहाशा भागे और पुल खत्म हुआ तो वे दाहिनी ओर कूदे और मैं बाईं ओर । रड़कते हुए हम नीचे नदी के किनारे पहुँचे। बड़ी राहत से रेल को गुजरते हुए देखा। फिर अपने छिलने से खून पोंछा, धूल-कंकर निकाले और कराहते हुए पुल पर इकट्ठे हुए। जान बचने के सदमे में चुपचाप चलते गए।
तब रज्जू बाबू यानी राजेन्द्र माथुर इन्दौर की पलशीकर कॉलोनी में कोटिया जी के घर किराए पर रहते थे। वहाँ से थोड़ी दूर दाहिनी तरफ से खंडवा की छोटी लाइन जाती थी। तब वहाँ सुनसान हुआ करता था और रेल की पटरियों के बीच चलते हुए कभी-कभी तो हम बीजलपुर तक चले जाते थे। वह गाँव अपने दानेदार चॉकलेटी गुड़ और जामफल यानी अमरूद के लिए प्रसिद्ध था। उस दिन के हादसे के बाद भी हमारा बात करते हुए पटरी पर जाना चलता रहा। एक बार दिल्ली आने पर हम राजघाट कॉलोनी से राष्ट्रपति भवन तक पैदल गए। मई का महीना था और आसमान पर आँधी से राजस्थान से आई रेत चढ़ी हुई थी। उसके बीच सूरज बुझते हए कंदील की तरह लटका था। लौटते हुए हम हाँफ रहे थे। रज्जू बाबू ने अपना बुश्शर्ट और मैंने अपना कुरता कन्धे पर टाँग रखा था। हमें विश्वास था कि दिल्ली के राजपथ पर हमें कोई नहीं जानता और हम मज़े में बनियान में ही घर पहुँच सकते हैं।
इस तरह बात करते, सोचते, एक दूसरे की बात पर बात चढ़ाते और अपने को बेलाग व्यक्त करते हुए हम अन्दर से बहुत भरे-भरे महसूस करते। लगता कि अपने जीने का पिच, उछाल, गति और घुमाव तय हो रहा है। रज्जू बाबू के दिल्ली आने और 'नवभारत टाइम्स' के सम्पादक हो जाने के बाद भी कभी-कभी ऐसा चलना और बतियाना हुआ। सघनता तो वैसी ही रही, बारम्बारता लेकिन बहुत घट गई। आखिरी बार हम भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी की जयन्ती पर उनके नाम के पत्रकारिता विश्वविद्यालय की महापरिषद की बैठक में चार अप्रैल को मिले। बैठक के बाद महेश पांडे की छोटी बेटी छुटकी ने आकर मुझे कहा-ताऊजी,आपको इस होटल की लक्जरी अच्छी लगती है? नहीं तो फिर घर चलिए। यहाँ क्यों रहना? उसके और महेश पांडे के साथ होटल छोड़ते हुए रज्जू बाबू ने हमें लॉबी में देखा। उठ के आए। कहाँ जा रहे हो? मैंने बताया। अरे यार! प्राइवेसी भी कोई चीज़ होती है!
इसके बाद नौ अप्रैल को जब मैं निर्माण विहार के अपने घर से मुम्बई जाने के लिए निकला तो बाहर विकास मार्ग पर डॉक्टर डोगरा के क्लिनिक में वे भर्ती थे। मुझे शंका तक नहीं थी कि वे वहाँ होंगे। मुम्बई पहुँचकर उस दिन के काम निपटाए। रात भोजन करके कमरे में गया तो रामनाथ गोयनका की निजी सचिव गीता मोर ने आकर विमान का टिकट दिया। कहा-आपके रज्जू बाबू नहीं रहे। सबेरे का टिकट है।
वह अपने खिड़की दरवाजे एक-एक कर बन्द होने और कमरे में कैद होने की शुरुआत थी। नौ अप्रैल इकानवे को राजेन्द्र माथुर गए। सितम्बर में शरद जोशी। अक्टूबर में रामनाथ गोयनका और तेरह जनवरी बानवे को लखनऊ में था कि देवास से कुमार गंधर्व चले गए। अपन जिनसे बात कर सकें और जिनकी ओर देखकर जी सकें ऐसे चारों जने देखते-देखते और यों ही चले गए। एक ने भी उनके बिना जीने की तैयारी करने का मौका नहीं दिया। जैसे कछुआ अपने हाथ, पैर और सिर अपनी पीठ के नीचे छुपाकर निःश्वास बैठ जाता है वैसे ही अपन बैठ गए।
यह तो उस दिन सिडनी हार्बर की पार्क रॉयल होटल के उस कमरे में रज्जू बाबू से संवेदी संवाद करते हुए अपने को पकड़ा तो जैसे इलहाम हुआ कि अपन किस ऑक्सीजन के बिना जी रहे हैं। जो सोहबत और जो संवाद आपके बोलने-चालने और सोचने-समझने के सारे खिड़की, दरवाजे, परदे, काँच और देखे-अनदेखे आवरण उतार दे और आपको अभिव्यक्त होकर सार्थकता से जीने को निरन्तर प्रेरित करे वह दरअसल आपके अमृत-कलश को लगातार भरता रहता है। कोई दस महीने से मैं अपनी ही सोहबत में अपने से ही संवाद करता बियाबान में अकेला पड़ा हुआ था। करने को सब कर रहा था। वन-डे क्रिकेट का विश्व कप कवर करने यहाँ आस्ट्रेलिया ही आ गया था। अपने लिए आस्ट्रेलिया का आविष्कार भी कर रहा था। लेकिन जैसे कोई जानवर अपनी इन्द्रियों के जिलाए जीता है वैसा ही जी रहा था। अनुपस्थित रज्जू बाबू से बात करते हुए अचानक लगा कि मन, बुद्धि और आत्मा के स्तर पर जीने को किस तरह बर्फ जैसा जमाकर पशुवत जी रहा था।
रज्जू बाबू इनमें सबसे पुराने संगी थे। लेकिन कुमार जी शायद उनसे भी पहले के। सुनवानी महाकाल से देवास सात किलोमीटर पड़ता था। वहाँ से पैदल जाकर कुमार जी के रियाज में बैठना और सृजनात्मक संगीत को बनते हुए सुनना क्यागजब स्फूर्तिदायक अनुभव होता था। तब भानु ताई जीवित थीं और कुमार जी लम्बी बीमारी से मुक्त होकर उठे थे और गाने को फिर से आविष्कृत कर रहे थे। मुकुल से छोटे बेटे को जन्म देते हुए भानु ताई गई। कुमार जी ने नया घर बनाया तो उसका नाम भानुकुल रखा। अपना लोक और सांस्कृतिक संसार कुमार जी की मध्य लय के मधुर संवेदनशील स्वरों से रचा गया था। उनके जाने के बाद उस संसार का जैसे दरवाजा ही बन्द हो गया। शरद जोशी से दोस्ती नई दुनिया में जाने के बाद हुई। उनमें अच्छी से अच्छी परिस्थिति में विद्रूप देखने की विलक्षण और सहज प्रतिभा थी। वे सब पर हँस सकते थे। हर एक का मखौल उड़ा सकते थे। लेकिन अन्दर से इतने नाजुक और सहज भेध थे कि तिनके से भी घायल हो जाएँ। उन्हें बच्चे की तरह बचाकर रखने में सुख मिलता था। वे रज्जू बाबू के जाने के पाँच महीने बाद ही चले गए।
रामनाथ गोयनका यानी आरएनजी से सबसे बाद सन् बहत्तर में मिलना हुआ। अक्टूबर इकानवे में एक रात जब वे गए तो सतासी बरस के थे। उनसे मुलाकात हुई तब वे अड़सठ बरस के थे और इन्दिरा गांधी से राजनीतिक लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे थे। इन्दिरा गांधी और उनके बेटे राजीव गांधी दोनों से उनकी राजनीतिक लड़ाई हुई और दोनों को ही आतंकवादियों के हाथों मारे जाते उनने देखा। संजय गांधी को भी विमान दुर्घटना में जाते हुए उनने देखा था। कैसी विडंबना है कि जवाहर लाल नेहरू ने इन्दिरा गांधी के परिवार की देखभाल करने की जिम्मेदारी आरएनजी को सौंपी थी और फ़ीरोज़ गांधी 'इंडियन एक्सप्रेस' के महाप्रबंधक भी हुआ करते थे। लेकिन इन्दिरा गांधी के ही पूरे परिवार को नहीं उनने अपनी पत्नी और इकलौते बेटे भगवानदास को भी जाते हुए देखा था। चेन्नई के अपने घर में दाढ़ी बढ़ाए हुए और अपने कमरे में अकेले रहते हुए बैरागी रामनाथ गोयनका को भी मैंने देखा था। उन्हें जैसे उस काल कोठरी में देखकर मैंने अपने से पूछा था-जीने और लड़ने को इस आदमी के लिए अब क्या बचा है?
लेकिन अस्सी के साल में और अपने छिहत्तरवें वर्ष में आरएनजी लौटकर अपनी वाली पर आए। इन्दिरा गांधी भी सत्ता में वापस आई थीं। इसके बाद के ग्यारह साल आरएनजी ने फिर संघर्ष में बिताए। कोई यद्ध न हो तो जीना उन्हें निष्प्रयोजन लगता था। लड़ते हुए वे तन, मन, धन से लड़ते थे और कुछ भी उठाए नहीं रखते थे। अपने सारे विकल्प हर समय खुले रखते थे। इतनी राजनीतिक लड़ाइयाँ लड़े लेकिन राजनीति से अपने लिए कुछ नहीं लिया। विलक्षण विरोधाभासों के आदमी थे। रोक कर या बचाकर अपने पास कुछ नहीं रखते थे। राग-विराग और राग-द्वेष सबमें और खुलकर जीते थे। धर्म भीरु थे लेकिन मर्यादाओं और बाधाओं से खेल करते रहना स्वभाव में था। उस छोटे से आदमी के गजब के वेग का रहस्य ही यहीथा कि किसी भी स्थिति में से कर गुजर के निकलने की कोशिश कभी छोड़नी नहीं चाहिए। हारी हुई लड़ाई भी कैसे जीती जाती है यह रामनाथ गोयनका से कोई भी सीख सकता था। उनके साथ रहना हमेशा एक घोड़े पर चढ़कर सरपट दौडते रहना था। एक अर्थ में वे राजेन्द्र माथुर से बिलकुल विपरीत चरित्र के आदमी थे। मेरी दोनों से इतनी पटी इसे देखकर मझे आज भी अचरज होता है।
उस दोपहर सिडनी के होटल के उस कमरे में पहली बार मैंने समझा और आकलन किया कि इन चारों के जाने से कितना अव्यक्त, अधूरा और निपट अकेला रह गया हूँ। मुझे आत्मीय संवाद के लिए अपने अन्दर ठिठककर जमी बर्फ को पिघलाना पड़ेगा। फिर पाल को तोड़कर अनजाने और अनगिनत स्रोतों से इकट्ठे होते जल को बेझिझक बहते रहने के लिए साधना होगा। ऐसा नहीं कर पाया तो जीना मुश्किल होता जाएगा। उस शाम जब सिडनी क्रिकेट ग्राउंड जाने के लिए निकला तो मुझे लगा कि अपनी गुत्थी मैंने पकड़ ली है। उसका एक सिरा भी अँगूठे और पहली उँगली के बीच आ गया है। सँभलकर और हलके हाथों से खोलूँगा तो एक दिन पूरा धागा सीधा हो जाएगा और तब मैं उसे हुचके पर बाँधकर ठीक से लपेट लूँगा। शायद ऐसे ही धागे से बँधी अपनी जिन्दगी सीधी खुलती जाएगी।
सिडनी के बाद न्यूजीलैंड गया और ऑकलैंड से डनेडिन तक का चक्कर लगाया। डनेडिन से दक्षिणी ध्रुव तक कोई ज़मीन और बस्ती नहीं है। समुद्र और जमी हुई बर्फ है। वहाँ से लौटकर एडीलेड और फिर मेलबर्न और फिर अपने देश अपने घर। दफ्तर आकर पहले जवाहर लाल कौल और फिर 'जनसत्ता' के रविवारी के सम्पादक मंगलेश डबराल को सिडनी में उस सुबह पुल पार करने और आस्ट्रेलिया पर राजेन्द्र माथुर से बात करने का किस्सा सुनाया। यह भी कहा कि सम्पादकीय और लेख लिखता रोज हूँ लेकिन लगता है कि मन की बात मन में ही रह गई। कथा कहानी लिखता रहता तो शायद अपनी अभिव्यक्ति पूरी हो पाती। लेकिन जब ऐसा लिखने का उत्साह और कहानियाँ थी तब लगता था कि अपने आसपास के राजनीतिक संसार को प्राप्त परिस्थितियों में समझना और समझाना भी जरूरी है। ठोस और भौतिक वर्तमान से उसी के उपकरणों से निपटना भी एक चुनौती है और उसका भी सामना करना चाहिए। अगर गाँव सुनवानी महाकाल और ग्रामसेवा छोड़कर पत्रकारिता में नहीं आता तो शायद साहित्य में ही लगा रह सकता था। लेकिन पत्रकारिता में रपट पड़ा हूँ तो यों ही 'हर गंगा' क्यों करूँ? इसलिए तथ्यों और वर्तमान को साधने में लगा रहा। कल्पना और अनुभूति के बजाय तथ्यों और तर्कों को औजार बनाया।
फिर एक दिन हमारे सम्पादकीय पेज के सम्पादक जवाहर लाल कौल आए। अपना पेज वे फाइनल करके आए थे और चाय पीने और गप लगाने के मूड मेंथे। वे 'दिनमान' में अज्ञेय और रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों के साथ काम कर चुके थे लेकिन कविताई और कथाई के चक्कर में नहीं पड़ते थे। अच्छी पेशेवर पत्रकारिता करते थे। अपने राजनीतिक लगावों, झुकावों और विचारों को अपने पत्रकारीय कामकाज से अलग रखते थे। लेकिन, छल-कपट से छुपाकर नहीं। उनसे बरतते हुए आप जानते थे कि वे कहाँ खड़े हैं और आपसे उनकी दूरी या नजदीकी कितनी है। कोई घंटे-डेढ़ घंटे दुनिया भर की गप लगाने के बाद उनने कहा कि आप एक कॉलम क्यों नहीं लिखते। ऐसा कि जिसमें जो मन में आए आप लिखें और कोई स्पष्ट निष्कर्ष निकालने की कोशिश ना करें। बेमतलब की बात में भी मतलब हो। बिलकल निजी हो लेकिन प्राइवेट उसमें कुछ न हो। जैसे कविता बिलकुल निजी होती है लेकिन सबकी अनुभूति को प्रकट करती है।
तब तक 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पेज पर किसी का कोई कॉलम नहीं छपता था। हमने तय कर रखा था कि सम्पादकीय पेज को तात्कालिकता और सामयिकता के लिए खाली रखेंगे। जब जैसा अखबार के नाते जरूरी हो छापेंगे। रविवारी में भी कॉलम एक ही छपता था-रघुवीर सहाय का। वे जब तक जिए लिखते रहे। कॉलमों से अखबार की जगह बँध जाती है। हर सुबह अखबार खाली नाव की तरह दिन में उतरे और रात डेढ़ बजे तक जरूरी सामग्री भरकर पाठक के पास ले जाए और खाली होकर लौट आए। इसलिए मूल अखबार में जगह निकलने की कोई गंजाइश नहीं थी। फिर खबरों और उनके विश्लेषणों के बीच वैसा निजी किस्म का कॉलम बहुत अटपटा लगता। मंगलेश जी को बुलाकर पूछा कि ऐसा कोई कॉलम लिखू तो क्या आप छापेंगे? छापेंगे भी तो किस पेज पर और कैसे? वे सोचकर आए और रविवार के दिन सम्पादकीय पेज की जगह हम जो किताबों और सांस्कृतिक मामलों पर सामग्री छापते थे उसमें उनने जगह निकाली।
कॉलम में क्या होगा यह उन्हें विस्तार से बताया था। उन्हीं को उसका नाम सुझाना था। उनसे कहा था कि ऐसा कतई नहीं लगना चाहिए कि यह किसी गम्भीर विवेचन का कॉलम है। इसमें भावनाओं, गपों और सीधी-सीधी बतकही होगी। सम्पादकीय पेज की सामग्री और वैसा ही उससे बरतना इसमें नहीं होगा। ऐसा हल्का-फुल्का नाम रहे कि न लिखनेवाले पर कोई बोझ हो, न पढ़नेवाले पर कोई भार पड़े। मंगलेश जी ने 'कागद कारे सुझाया। यह तुलसीदास का लिखि कागद कोरे नहीं था। यह प्रभाष जोशी का यों ही लिखकर कागद काले करना था। मुझे यह नाम पसन्द आया। कौल साब को बताया तो उन्हें भी ठीक लगा। फिर भी हमारे अखबार में गम्भीर पत्रकारिता करने और औपचारिकता निभानेवालों की कमी नहीं थी। उन्हें लगा कि सम्पादक कॉलम लिखे और उसमें वजन न हो तो अखबार और सम्पादक की छवि बिगड़ेगी। उन्हें कागद कारे नाम और उसका सम्भावित कथ्य और रूप दोनों ही हल्के-फुल्के साप्ताहिक के लायक लगता था। उन्हें बताया कि गम्भीर सामग्री तो अपन हर दिन छापते ही हैं। रविवार को कुछ ऐसा भी छाप सकते हैं जो पत्रकारिता के निर्धारित और अपेक्षित ढाँचे से अलग हो। जब वे भी मान गए तभी यह कॉलम शुरू हुआ।
पाँच अप्रैल बानवे के अंक में पहला 'कागद कारे छपा क्रिकेट के कोकाकोलाकरण पर। तब से अब तक यानी कोई सोलह साल से ज्यादा हर रविवार के लिए लिखता रहा हूँ। बहुत कम ऐसे रविवार रहे हैं जब सचमुच अपरिहार्य कारणों से लिखा न गया हो। सन् चौरानवे के मई महीने में मुम्बई के अस्पताल में अपनी बाईपास हुई। ऑपरेशन थिएटर से बाहर तीन दिन रिकवरी में रहा। चौथे दिन कमरे में आते ही आलोक तोमर को बोलकर लिखवाया। ध से धैवत और धन्यवाद । एक वही कॉलम है जो खुद बैठकर नहीं लिखा। एक बार मालवा के जीवन पर यों ही लिख दिया। मुम्बई के सबसे रईस रिहायशी इलाके वालकेश्वर से मालवा या राजस्थान से ब्याह कर आई एक लड़की ने उसे पढ़कर रोते हए चिट्ठी लिखी। वह वैसे ही हुमक रही थी जैसे अपने बचपन के घर आँगन को याद करके मेरी आत्मा हुमकती है।
पाँच-छह साल पहले महाराष्ट्र के मालेगाँव जाना हुआ। अखबार में छपे भाषण से तार जोड़ते हुए एक सज्जन आखिर मुझ तक पहुँच गए। एक बड़ा-सा बेलफल लेकर आए थे और दूसरे झोले में अखबार की कतरनें थीं। निकालकर थप्पे के थप्पे उनने मेरे सामने रखे। उनने एक भी कागद कारे छोड़ा नहीं था। उनकी शिकायत थी कि मुम्बई से 'जनसत्ता' निकलना बन्द हुआ तो अब यह कॉलम मैं कहाँ से पहूँ। देखिए मैं आपका ऐसा पाठक हूँ। आपको कम-से-कम कोई इन्तजाम तो करना चाहिए कि मुझे डाक से प्रत्येक रविवार का अंक मिले। मैंने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, इतनी कतरनें तो दफ्तर में हमारे रामबाबू ने भी निकालकर ऐसे जतन से नहीं रखी होंगी। मैं सोच नहीं सकता कि ऐसा भी कोई दीवाना पाठक होगा। लेकिन मैं आपको भरोसा नहीं दे सकता कि हर रविवार की 'जनसत्ता' आपको मिल जाएगी। मैं सिर्फ सलाहकार हूँ और मैंने कोई कार्यकारी अधिकार नहीं रखा है। वे सज्जन असन्तोष में चले गए। लेकिन उनके दिए बेलफल से मीठा बेल अपन ने कभी खाया नहीं था।
लेकिन मालेगाँव के उन सज्जन की कतरनों का झोला देखने के बाद मेरे मन में कृतज्ञता का भी एक बोध बढ़ गया। जैसी बातें कागद कारे पढ़नेवालों के मुँह से मैंने सुनी हैं और जैसे खत मुझे मिलते रहे हैं, मेरी कृतज्ञता की कारी कामली लगातार भीग कर भारी होती गई। भावुक हो जानेवाले साधारण पाठकों कीप्रतिक्रियाएँ फिर भी समझ में आ सकती हैं। लेकिन एक बार इतने पढ़े-लिखे और ऐसे आलोचक नामवर जी ने धीरे से मुझे कहा-कब तक कतरनें काटकर रखू। फाइल बहुत मोटी हो गई है। आप इन्हें छपवा क्यों नहीं देते। सबसे ज्यादा पढ़े और याद रखे जानेवाले वे कॉलम हैं जो निहायत निजी किस्म के कहे जाएँगे। कहीं भी जाऊँ कोई न कोई निपट अनजान मुझसे आकर पूछेगा-भेनजी कैसी हैं? माताराम कहाँ है? माधव कैसा खेलता है? पप्पू, मुनमुन, लालू आदि के क्या हाल हैं? बड़ी बहन की मृत्यु पर लिखा तो रतलाम के विष्णु बैरागी ने फोन करके और फिर चिट्ठी लिखके बताया कि वे कितना रोए। जीजा जी के श्राद्ध में गया और लिखा तो 'इंडियन एक्सप्रेस' अमदाबाद के सम्पादक एन के सिंह ने सिर्फ यह बताने के लिए दो बार फोन किया कि वे कितना रोए। बीकानेर के किसी सज्जन ने फोन करके कहा-उस बेंच पर आप अकेले नहीं बैठे हैं। मैं आपके पास बैठा हूँ।
मैं जानता हूँ कि 'जनसत्ता' के पाठकों से पहले दिन से मेरा एक निजी और आत्मीय सम्बन्ध है। इसके बिना न तो यह कॉलम इस तरह लिखा जा सकता है, न पढ़ा। आज सोलह साल बाद सिडनी की वह दोपहर मुझे धन्य करती है जिसमें से कागद कारे करने की प्रेरणा निकली। इसे लिखकर अनेक हो जाने की मेरी आदिम इच्छा पूरी होती है। 'जनसत्ता' के पाठकों ने भरा-पूरा जीवन जीने का मौका देकर मुझे कितना धन्य किया है मैं ही जानता हूँ। इन्हें छपवाकर पुस्तकाकार करने की माँग और दबाव जब बहुत बढ़ गया तो रामबाबू से फाइल लेकर मैंने सुरेश शर्मा को ले जाकर दी जो 'जनसत्ता' छोड़कर 'नवभारत टाइम्स' में चले गए थे लेकिन मुम्बई अभी नहीं गए थे। दस साल के कागद कारे उनने देखे, पढ़े और छाँटे। उन्हीं ने पाँच पुस्तकों में इनका विभाजन किया। वे 'जनसत्ता' के हमारे पुराने साथी हैं। लेकिन पहला कॉलम रवीन्द्र त्रिपाठी ने देखा क्योंकि तब वे रविवारी में मंगलेश डबराल के सहयोगी थे। रामबाबू ने इन्हें काटकर सहेजकर रखा और सुरेश शर्मा ने सम्पादित किया। अपने तो बस की बात नहीं थी कि यह सब कर पाते। मैं तो सच बताऊँ लिखने और छपने के बाद इन्हें पढ़ भी नहीं पाया हूँ।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो-ऐसा अकबर इलाहाबादी ने कहा है। आज लोग तोप का मुकाबला करने को अखबार नहीं निकालते। वे पैसा और थोड़ा बहुत पव्वा कमाने के लिए अखबार निकालते हैं। इसलिए छापने के पैसे माँगने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती। अपन ऐसी पत्रकारिता करने नहीं आए थे। आजादी के बाद के दूसरे दशक में लगता था कि पत्रकारिता समाज बदलने और नया समतावादी और न्याय आधारित समाज बनाने का माध्यम है। आज आप ऐसी बातें करें तो लोग हँसने लगते हैं। फिर भी नरसिंह राव के कहने पर मनमोहन सिंह जब सन् इकानवे में नव उदार आर्थिक व्यवस्था लाए तब तक भारतीय पत्रकारितामें समाज परिवर्तन की वाहक बनने की इच्छा थी। आज जो प्रवृत्तियाँ आप देख रहे और दुखी हो रहे हैं वे सब इसके बाद की है।
लेकिन यहाँ जो लेख संकलित हैं वे आज की पत्रकारिता की आलोचना में नहीं है। ये पत्रकारिता करने या उसे कॉलेजों में पढ़ाने वालों के लिए भी नहीं है। मुझे हमेशा लगता रहा कि पत्रकारिता करने और करके दिखाने की चीज है। उपदेश देने या सिखाने की नहीं। यह अपने काम की आत्मलोचना है और जो कर न पाए उसका अफसोस भी। लेकिन यह पत्रकारिता को जनसम्पर्क अभियान या प्रकाशन उद्योग बना देने के विरुद्ध तो है ही। मुझे अब कोई पचास साल हो जाएँगे लेकिन कभी मुझे नहीं लगा कि पत्रकारिता बेकार का काम है। ऐसा होता तो अपने अखबार में मैं लगातार लिखता नहीं रह सकता था। न दैन्यम् न पलायनम्!
अशोक महेश्वरी के लिए क्या कहूँ। तीन साल से तो ये सेट किए हुए रखे रहे मेरे पास और मैं आज कल करता रहा। आज ये आपके हाथ में हैं तो सुरेश शर्मा, अशोक महेश्वरी और रामबाबू की बदौलत!
15 जुलाई, 2008 -प्रभाष जोशी
- प्रभाष जोशी |