अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल

आशापञ्चक

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 बाबू गुलाबराय | Babu Gulabrai

आशा वेलि सुहावनी. शीतल जाको छांहि ।
जिहि प्रिय सुमन सुफलन ते, मधराई अधिकाहिं

आशा दीपक करत नीत, जिहि हिरदे में बास
ज्यों ज्यों छावे तिमिर घन, त्यों त्यों बड़े प्रकास

मानव-जीवन को सुखद, सरस जु देत बनाइ
सो आशा संजीवनी, किहि हत-भाग न भाइ

होहु निरासन हार में, धन्य लच्छ निज मान
तोमे ईश्वर अंश को, देत जु प्रकट प्रमान

मीत न होहु निराश अब, लखि समाज को हास
मधुऋतु आगम सूचहीं, पतझड़ फागुन मास

-गुलाबराय

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