साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

एक फूल की चाह

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
फैल रही थी इधर उधर।

क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशान्त।

बहुत रोकता था सुखिया को
'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।

मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
किसी भांति इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाये,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया।

ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
भाव अचानक पाया यह?

मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
कौन यहाँ लाने देगा?

बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
धीरज हाय! धरूँ कैसे?

कोमल कुसुम समान देह हा!
हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
विपुल वेदना, व्यथा नई।

मैंने कई फूल ला लाकर
रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको,
किसी तरह तो बहला कर।

तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिन्ता में मैं मनमारे।

जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
कब आई सन्ध्या गहरी।

सभी ओर दिखलाई दी बस,
अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!

ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।

देख रहा था - जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
अटल शान्ति-सी धारण कर।

सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
हाय! न मुझसे इसे हरो!

काली कान्ति पड़ गई इसकी,
हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
मेरे इस जीवन से शान्त!

मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
पार न मुझको कहीं वहाँ।

अरी रात, क्या अक्ष्यता का
पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू
डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी,
सहसा आज विकृति कैसी!

युग के युग-से बीत गये हैं,
तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
बोल, बोल, कुछ तो बेटी!

वह चुप थी, पर गूँज रही थी
उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है
और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
रोक सकेगा कौन मुझे।"

मेरे इस निश्चल निश्चय ने
झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
रंजित भाल नभस्थल का!

झड़-सी गई तारकावलि थी
म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
मानों सुध-बुध सी खो कर।

रस्सी डोल हाथ में लेकर
निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर
अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
सजली पूजा की थाली।

सुकिया के सिरहाने जाकर
मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा - उसे चूम लें,
किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
खड़ा रहा कुछ दूरी पर।

वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू
हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
आज्ञा यही समझ तेरी।

उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।

परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह
मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
पूजा के उपकरणों में।

दीप-दूध से आमोदित था
मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!"

"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" -
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जानें किस बल से ढिकला!

माता, तू इतनी सुन्दर है,
नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
कैसी विधी यह तू ही कह?

आज स्वयं अपने निदेश से
तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
श्री-चरणों तक आया है।

मेरे दीप-फूल लेकर वे
अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,

भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
यह अछूत भीतर आया?

पकड़ो, देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मन्दिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।"

ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे
धम-से नीचे गिरा दिया!

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।

मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी
दो बच्ची को ले जाकर।


न्यायालय ले गए मुझे वे
सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!

मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता; क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।

कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों
ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
दूर न था गिरजाघर भी।"

कैसे उनको समझाता मैं,
वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढेरी!

अन्तिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको
जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
दण्ड न पा सकता था क्या?

बेटी की छोटी इच्छा वह
कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
सभी विभव मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
- कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही लाकर दो!

-सियारामशरण गुप्त

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