यूँ तो मिलना-जुलना चलता रहता है मिलकर उनका जाना खलता रहता है
उसकी आँखों की चौखट पर एक दिया बरसों से दिन-रात ही जलता रहता है
कितने कपड़े रखता है अलमारी में जाने कितने रंग बदलता रहता है
सूरज को देखा है पानी में गिरते गिरकर फिर भी रोज निकलता रहता है
यादों में रह जाते हैं फिर भी ज़िंदा जिन लमहों को वक़्त निगलता रहता है
औरों ने रक्खा था मेरे पास कभी मेरे भीतर दर्द जो पलता रहता है
- प्रगीत कुँअर सिडनी, ऑस्ट्रेलिया |