किसी की आँख में आँसू, किसी की आँख में सपने पराए हैं कहीं घर के, कहीं अनजान भी अपने
बिछाई राह में तुमने, भले शीतल हवाएँ हों पड़े हैं अनगिनत छाले, लगें हैं पाँव भी थकने।
पड़ा जब दुःख भरा साया, कोई भी पास ना आया हुआ जो नाम उनका तो, लगे दिन रात हैं जपने
तपी धरती पे चलने का, हुनर हमको बहुत है पर चले जब आज छाया में, लगे हैं पाँव क्यूँ तपने
बनाया था जिन्हें हमने, क़लम की दी जिन्हें ताक़त वही अब भूल बैठे हैं, लगे हैं आज जब छपने
अंधेरी रात में लेकर बड़े नाख़ून वो निकलें डरी हिरणी सी काँपी थी, चली थी उनसे मैं बचने
-डॉ० भावना कुँअर सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) |