हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।

गऊचोरी

 (विविध) 
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रचनाकार:

 विद्यानिवास मिश्र

बाढ़ उतार पर थी और मैं नाव से गाँव जा रहा था। रास्‍ता लंबा था, कुआर की चढ़ती धूप, किसी तरह विषगर्भ दुपहरी काटनी थी, इसलिए माँझी से ही बातचीत का सिलसिला जमाया। शहर से लौटने पर गाँव का हाल-चाल पूछना जरुरी-सा हो जाता है, सो मैंने उसी से शुरू किया .... ' कह सहती, गाँव-गड़ा के हाल चाल कइसन बा।' सहती को भी डाँड़ खेते-खेते ऊब मालूम हो रही थी, बोलने के लिए मुँह खुल गया - 'बाबू का बताई, भदई फसिल गंगा भइया ले लिहली, रब्‍बी के बावग का होई, अबहिन खेत खाली होई तब्‍बे न, ओहू पर गोरू के हटवले के बड़ा जोर बा, केहू मारे डरन बहरा गोरू नाहीं बाँधत बा, हमार असाढ़ में खरीदल गोई कवनी छोरवा दिहलसि, ओही के तलास में तीनों लरिके बिना दाना पानी कइले पाँच दिन से निकसल बाटें।' इतना कह कर गरीब आदमी सुबकने लगा। कुछ सांत्वना देने की गरज से मैंने पूछा - 'कहीं कुछ सोरिपता नाहीं लगत बा। फलाने बाबा के गोड़ नाहीं पुजल?' जवाब में वह यकायक क्रोध में फनफना उठा - 'बाबू रउरहू अनजान बनि जाईलें। माँगत त बाटें तीन सैकड़ा, कहाँ से घर-दुआर बेंचि के एतना रुपया जुटाईं। सब इनही के माया हवे, एही के बजरिए बा'। तब सोचा हाँ, जो त्राता है वही तो भक्षक भी है। गऊ चुराने वाला गोभक्षक नहीं गोरक्षक ही तो है। हमारे गाँव में गऊचोरी से बड़ी शायद कोई समस्‍या न हो।

सहती माँझी का रोना गाँव-गाँव का रोना है। गऊचोरी के व्‍यवसाय के कई रूप हैं। पहला रूप है पशुओं को खूँटे से छोड़कर एक ठीहे (अड्डे) से दूसरे ठीहे पर घुमाते रहना जब तक उनका समुचित पनहा (प्रतिकर) किसी माध्‍यम द्वारा वसूल न हो जाए। इस व्‍यवसाय के पाँच टुकड़े होते हैं, पहला जो यह संकेतित करता है कि इनके पशु चुराए जाएँ, दूसरा जो पशु खूँटे से छोड़कर एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचा देता है, तीसरा जो यत्‍न करता है कि समीप के ठीहे से ही सौदा पटा लिया जाए, चौथा जो चुराए पशु को एक ठीहा से दूसरे ठीहा तक पहुँचाए और पाँचवाँ जो ठीहों का नियंत्रण तथा चोरी के माल का बँटवारा आदि करे। इसमें पहली, तीसरी और पाँचवीं कोटि में गाँव के प्राय: संभ्रांत लोग आते हैं, दूसरी श्रेणी में आते हैं मनचले छोकरे और चौथी में पक्‍के डकैत और लठैत। व्‍यवसाय इतना सुसंगठित है कि भारतीय दंड-विधान की धाराओं की पकड़ में आ ही नहीं सकता।

इस गऊचोरी का विकसित रूप है भूमि की चोरी। दूसरे प्रांत की बात नहीं जानता पर अपने प्रांत में जमीन की शायद उन्‍नीस-बीस किस्‍में होती हैं और कागद में किस्‍मों की हेर-फेर के साथ अनपढ़ किसान की किस्‍मत की हेर-फेर हुआ करती है। इस कागदी चोरी में भी पाँच हिस्‍सेदारी होते रहे हैं, पटवारी, जमींदार, जो शायद अब भूमिधर कहलाने जा रहे हैं, जमींदार के पिट्ठू चरकटे, नए कमासुत जवान और गाँव के साहू। सिलसिला यों चलता है, कोई बेवा हुई या कोई उजबक लापरवाह किसान हुआ,उसकी सूचना चरकटे पटवारी और जमींदार को देते हैं, बस पटवारी और जमींदार मिलकर जाल रचते हैं, जाल में फँसाए जाते हैं आराकसी से कमा कर नया रुपया लाए गबरू जवान। मुंशी जी मिश्री घोलकर कहते हैं - 'परदेसी, की ताकत बाट अइसन नम्‍मर एक के जमीन हजार रुपया बिगह पर नाहीं पइब,रुपया केहु लगे रहि जाला, कुछ गोसयाँ के चढ़ाव ते तुहार भाग चमकि जाए'। चरकटे परदेसी को और चंग पर चढ़ाते हैं फिर वह नशे में बूत होकर बातचीत शुरू करता है, तब जाकर मेघगंभीर स्‍वर में प्रभु की वाणी खुलती है - मुझे चार सौ रुपए अमुक से मिल रहे थे, पर मैंने देखा वह गाँजा पीता है, धरती मैया की इज्‍जत नहीं रखेगा, इसलिए साफ इनकार कर दिया, तुम मिहनती आदमी हो बराबर सेवा में लगे रहते हो, तुम्‍हें साढ़े तीन सौ रुपए में ही दे दिया जाएगा। इतने में पोपले मुँह वाले मुंशी जी चश्‍मे की कमानी उतार कर गिद्ध की तरह घेंच निकालते हैं - हें हें, मालिक कुछ कलमियों के त पूजा चाहीं, एही के जोर से सब करे धरे के हैं, कानूनगो बड़ा सरकश बा, नटई दबा के हमसे पचास रुपया ले लेई, ऐसे एक सैकड़ा के गोर हमारा लगा दीहल जाए'। अंत में शायद कुल चार सौ पर सौदा पटता है, इतना रुपया परदेसी के पास रहता तो है नहीं, विवश होकर फेंकू साहू की उदारता की शरण में उसे जाना पड़ता है। पहले से उनकी साँठ-गाँठ भी रहती है। रुपए का बाकायदा बँटवारा होता है, परदेसी को बेवा से छीन कर जमीन क्‍या दी जाती है उसके पैर से सात जनम में भी न अदा होने वाले कर्ज की जंजीर बाँध दी जाती है, बेवा एक ओर जार-बेजार रोती हैं, जमीन एक ओर रोती हैं क्‍योंकि परदेसी को उसके नाम पर परदेसी ही हो जाना पड़ता है, फेंकू साहू अलग झींकते हैं कि रुपया डूब गया। अंत में उस जमीन पर दूसरी चिड़िया फँसाई जाती हैं और अनंत काल तक यह छोरा-छोरी चलती रहती है।

हाँ गाँव में पटवारी के दरवाजे पर 'अधिक अन्‍न उपजाओं' आंदोलन के पर्चे और पोस्‍टर चिपके मिलते हैं -

परती जमीन छोड़ना गुनाह है।
खेत न कमाना देश के साथ विश्‍वासघात है।

पर कभी किसी ने सोचा है कि अधिक अन्‍न उपजाने में बाधक कौन है? वही पैंतीस या चालीस रुपिल्‍ली के बल पर इस महँगी में पक्‍का मकान बनवाने वाला पटवारी। सोने की चिड़िया को हलाल करने के लिए अंग्रेजों ने पटवारी प्रथा चलाई। आज उस चिड़िया को बोटी भर रह गई है, पर बोटी को भी पसाने के लिए पटवारी तैयार हैं। हमारे यहाँ पृथ्‍वी की उपमा सदा गऊ से दी गई है, सो सचमुच गऊ जितना अपने चोर से काँपती होगी उससे अधिक पृथ्‍वी अपने इस पटवारी से काँपती है। गऊ जब चोरी चली जाती है, तो उसे भरपेट घास नहीं मिलती, दान की बात तो दूर रखिए। इधर-उधर एक खोह से दूसरे खोह में ठोकर खाते, अंत में जब उससे कुछ तिरने वाला नहीं रहता तो वह कस्‍साई के हाथ बेच दी जाती है। यही हालत चुराई हुई जमीन की होती है। एक मालिक से दूसरे मालिक के पास, पर किसी से भी दुलार पुचकार कहाँ से मिलेगा, कमाई नहीं मिलती। अंत में कोई लंबा साफा वाला पंजाबी भट्ठा लगाने के लिए उसे ले लेता है, उस धरती की छाती पर भूत-सी चिमनी खड़ी हो जाती है और उस जमीन को फूँक डालती है।

बंकिम बाबू के कमलकांत के मत से तो यह गऊचोरी अंतरराष्‍ट्रीय न्‍याय है, इसके लिए महाभारत के भीष्‍म से लेकर लास्‍की तक का प्रमाण मिल सकता है और यही जानकर अलक्षेंद्र से लेकर आज के जैसे यशस्वियों ने अपना यह पुण्‍य कर्तव्‍य समझा है कि दुर्बल राष्‍ट्र का संरक्षण अपने हाथ में ले लिया जाए। जो दुर्बल न भी हो, उसे किसी भेदभाव से दुर्बल बना कर अपना संरक्षित बनने के लिए बाध्‍य कर दिया जाए, यही राजनीति का परम लक्ष्‍य है। पटवारी जो छोटे पैमाने पर हमारे गाँव में करता है, वही विराट पैमाने पर कर रहें बड़े-बड़े स्‍वनामधन्‍य राजनीतिज्ञ। काश्‍मीर और कोरिया को चोरों की छीना-झपटी में श्‍मशान बना डालने वाली नीति क्‍या उससे कम श्‍लाघ्य है? हाँ, दंड दोनों नहीं पाते, पटवारी के पास शासन का कवच है, राजनीतिज्ञ के पास सिद्धांत का कवच है। पटवारी जो कुछ करता है वह सरकार बहादुर के नाम पर, और राजनीतिज्ञ जो कुछ करता है वह सिद्धांत की रक्षा के नाम पर। दो-दो महायुद्ध पचीस वर्ष के अंतर में हो गए, केवल जनतंत्रवाद की रक्षा के नाम पर। यूरोप का मध्‍य स्‍वाहा हो गया अमरीकी जनतंत्र की स्‍वतंत्रता बनाए रखने के लिए। एशिया तो युगों से धाँय-धाँय सिद्धांतवादियों की पिशाचिनी ज्‍वाला मे जल रहा है, पर 'मएहि भारि मंगल चहत'। अब भी इसकी छाती पर दानवीय होड़ लगी हुई है। एशिया भी गऊचोरों के हाथ से निकलकर कसाइयों की छूरी की भेंट हो चुका है। झगड़ा केवल इस बात का है कि कौन-सी छूरी चलाई जाए?

गऊचोरी की एक चौथी जाति भी है, साहित्‍य-चोरी। वाणी की भी सीधी और दुधार होने के नाते गौ संज्ञा है, सो इस गौ के पीछे चोर पड़ गए हैं। चोरों का गुट एक ऐसा बन गया है जो साहित्‍यचोरी की बदौलत बिना खेत-बारी के ही हथियानशील बन गया है और जिनकी असली मिल्कित है, वे आज बात-बात के मुहताज हैं। इस गुट में भी कई वर्ग हैं, पहले वर्ग में आते हैं नवसिखुआ ग्रेजुएट जो नौकरी की इधर-उधर तलाश करते जब थक जाते हैं, तो किसी हितैषी के दरवाजे पर पहुँचते हैं, और वे बहुत ही उदार कंठ से अनमाँगा वरदान दे देते हैं - जाओ पाठ्यपुस्‍तक तैयार कर लाओ, कुछ प्रबंध करा दिया जाएगा। बस भक्‍त कैंची और लेई लेकर बैठ जाते हैं और अपने इन हरबा-हथियारों से न जाने कितने वाणी-मंदिरों में सेंध लगा-लगाकर माल इकठ्ठा कर लेते हैं, कुछ ऊपरी नाँव-गाँव की निशानी छील-छालकर 'संकलित', 'आधारित' 'रूपांतरित' आदि किस्‍म-किस्‍म की लेबुल लगाकर नया मसाला बाजार में बिकने के लिए जुटा देते हैं। अब दूसरे हैं श्री हितैषी जी जो कुछ अपनी प्रतिभा का चमत्‍कार दिखलाते हैं। आलोचना के बँधे हुए कुछ लच्‍छे यहाँ वहाँ जोड़ देते हैं और बस साहित्‍य के आगे कुसुम, सुमन, सौरभ, पराग, चंद्रिका, कमल, प्रकाश, आलोक और किरण जैसा कोई एक शब्‍द जोड़ कर साहित्‍य के विकास में अभिनव श्रीवृद्धि करने का सुयश कमा लेते हैं। तीसरे हैं प्रकाशक जो प्राय: इन पहले दो चोरों का भी गला काटने वाले होते हैं, मालिक कृति को तो 'न्‍यौछावर' कराके लेते हैं, पर इन पाठ्य पुस्‍तकों पर फीसदी देने के लिए हाथ बाँधे तैयार रहते हैं, उनकी मजबूरियों के रोने के आगे फेंकू साहू का सुबकना हल्‍का पड़ जाए, ऐसा तो इनका रोना लगा रहता है। नैसिखुआ भगत लोगों को तो बस देने में पनजीरी की प्रसादी भर मिल जाती है। इसके बाद उन्‍हें मुक्‍त कर दिया जाता है। हितैषी जी को भी कुछ लुभावने फूल-पत्‍ती की भेंट एक मुश्‍त ही मिलती है, पर असली फल का बँटवारा होता है प्रकाशक और दलाल में। दलाल चौथे वर्ग में आते हैं। ये लोग प्रकाशक और पाठ्य पुस्‍तक समिति के बीच कुटना का काम कर देते हैं, बस इसी परोपकार में अपना जीवन अर्पण किए रहते हैं। प्रकाशक बहुत ही लजीला नायक होता है और पाठ्य पुस्‍तक समितियाँ प्राय: बहुत ही धृष्‍ट नायिकाएँ होती हैं। इस विषमता को दूर करने के लिए ही बिचारे दलाल को मध्‍यस्‍थता करनी पड़ती है। सौ 'पत्रं पुष्‍पं फलं तोयम्' में बच रहता है तोयम् भर, अर्थात छाछ-समिति के हाथ रहता है। इस चौथी गऊचोरी में पाठ्य पुस्‍तक समिति पाँचवाँ वर्ग है।

हाँ, इस चौथी गऊचोरी को सभ्‍य संसार बड़ी आदर दृष्टि से देखता है, जो जितना ही चोरी करता है वह उतना ही पंडित और विद्वान समझा जाता है। बिना इस चोरी की कला में प्रवीण हुए किसी साहित्‍यकार को तत्‍कालीन इतिहास में स्‍थान नहीं मिलता, कारण यह कि तत्‍कालीन इतिहास को लिखने वाले भी इन चोरों के भाई-बंधु ही होते हैं, जो छद्म रूप से इस व्‍यवसाय को प्रोत्‍साहन देते हैं, वैसे ही जैसे गाँव की पुलिस, हलका के कानूनगो या अंतरराष्ट्रीय दार्शनिक अपने-अपने क्षेत्रों में चोरियों को बढ़ावा देते हैं। जो जूठन, कतरन और उतरन के बल पर लोग साहित्‍य-महारथी बन जाते हैं, और साहित्‍य के उद्यान में नई कली चटकाने का जो साहस करते हैं, उन्‍हें प्रयोगवादी कह कर उड़ा दिया जाता है। अजीब तमाशा यह है कि यहाँ चोरों ने ही साहुओं के लिए वादों का कटघरा तैयार कर दिया है और चोर ही बराबर कोतवाल को डाँड़ते रहते हैं। पटवारी की तरह गोनिया-परकार लेकर अतलस्‍पर्शी सूक्ष्‍म भावनाओं की नाप-जोख मनमाने तौर पर करते रहतें हैं; आँख से देखे बिना अपने दिमागी नक्शे की बदौलत पैमाइश सही मानी जाती है। इसलिए दिन-अनुदिन क्षण-प्रतिक्षण इस गऊचोरी का व्‍यवसाय फूलता-फलता चला जा रहा है। रोक-थाम करने का कोई साहस नहीं कर रहा है।

पाँचवीं गऊ है, आँख या इंद्रियाँ, और इसकी चोरी युगों-युगों से होती आई है, चोरी का टेकनीक भर बदलता रहा है। आँख इंद्रियों की द्वार है, इसलिए समस्‍त इंद्रियाँ उससे एक साथ लक्षित हो जाती हैं, यहाँ तक कि दस इंद्रियों से परे मन भी, बिना आँख के भेद लिए मन की चोरी नहीं होती। इस पाँचवीं गऊचोरी का व्‍यवसाय करने वाले दुनिया की भाषा में 'चितचोर' कहे जाते हैं। पर ये चितचोर गुट नहीं बाँधते, कभी बाँधते भी हैं तो अपनी चोरी के माल का हिसाब-किताब अलग रखते हैं। साझेदारी और सहकारिता की बाढ़ से अभी ये अछूते हैं। अभी तक इनकी चोरी किसी नीतिशास्‍त्र में गुनाह नहीं गिनी गई, पर सबसे दर्दनाक चोरी यही है, इसमें भी कोई संदेह नहीं। ऊपर की चार चोरियों में गया माल कभी उबर भी सके, पर यहाँ जो चीज चली गई, वह फिर वापस नहीं आती। इस चोरी के आगे पिछली चोरियाँ कुछ है ही नहीं, क्‍योंकि वहाँ माल तक ही सवाल है और यहाँ जान का जोखिम है। मनुष्‍य को माल से बढ़कर जान प्‍यारी होती है और वह जान इतने अनजाने कब किसी चोर के हाथ लग जाती है, इसका पता किसी को लग नहीं पाता। बैल चोरी चले जाने पर गरीब की खेती खड़ी हो सकती है, जमीन चोरी चली जाने पर बेवा की जिंदगी बसर हो सकती है, राज्‍य छिन जाने पर राष्‍ट्र जी सकता है और अपनी कृति की चोरी के बाद साहित्‍यकार में भी प्राण-शक्ति बची रह सकती है, पर चित्‍त चुरा लिया गया तो प्राण नहीं रहते। तब भी अचरज तो यह है कि इस चोरी की क्षति को जान कर भी लोग अपना घर-द्वार खुला छोड़े रहते हैं, मानों प्रतिक्षण चोरों को चुनौती-सा देते हों, जिनका चित्‍त कभी चोरी नहीं जाता, वे अपने भाग नहीं सराहते, उलटे अपनी हीनता के लिए रोते हैं कि हाय चोर को ललचाने वाला चित्‍त मुझे न मिला।

हाँ, इतना तो मैं भी कहूँगा कि सभी को चोर लायक चित्त नहीं मिलता और सभी को चित्तचोर नहीं मिलते। मैं पाँचों चोरियों में रमा हूँ इनकी उत्‍तरोत्‍तर सूक्ष्‍मता और उत्‍कृष्‍टता का मैंने पूरा अध्‍ययन किया है पर मैं सब जगह तो बचने का साध ढूँढ़ निकाल सका, केवल इस अंतिम क्षेत्र में खुद गच्‍चा में आ गया। बचते-बचते एक दम लुट गया, इससे जानता हूँ कि यह पाँचवी गऊचोरी सबसे अधिक दुर्दांत होती है। बैल-गोरू छोरने वाला चोर तो भेंड़ा चोर है, बहुत संगठित होन पर भी उसकी पिटाई भी होती है,सजा भी होती है, और दुर्दशा भी होती है। जमीन चुराने वाले भी कभी न कभी पकड़ में आ ही जाते हैं और न भी पकड़ में आएँ तो उनके सिर के ऊपर हमेशा कच्‍चे धागे में कानून की तलवार लटकती रहती है, जिंदगी उनकी घूस लेने और देने में ही तमाम हो जाती है। राज्‍यों के साथ खिलवाड़ करने वालों को तो और भी अधिक दुर्दशा भोगनी पड़ती है, अपने ही जीवनकाल में वे अपने ही साथियों से प्रतिहत होकर अपमान की रोटी खाने को बाध्‍य हो जाते हैं, सिद्धांत तो दल के साथ बदलते जाते हैं, पर सिद्धांतवादी विचार कहीं का नहीं रहता, यदि दूसरा दल सत्‍तारूढ़ हो जाता है। साहित्‍य की चोरी करने वाले भी अंत में मरते ही या तो विस्‍मृति के अंधगर्त में ही डूब जाते हैं और या बचे भी रहे तो चोरी का कलंक अनंत काल तक ढोते रहते हैं। परंतु चित्‍त चुराने वालों की कुछ भी तो दुर्दशा होती? उल्‍टे साहित्‍य के अमर देवता बन जाते हैं, भारती के मुकुट-मणि बन जाते हैं और बन जाते हैं लोक-कल्‍पना के परम आराध्‍य। यही तो मुझे दु:ख है कि चोरी के बल पर भी ऐसा उत्‍कर्ष मिल जाता है तो साह होने से लाभ ही क्‍या? क्‍या सचमुच दुनिया चोरों की है? 'वीरभोग्‍या वसुंधरा' कहने का अभिप्राय तब तो यही है न कि चोरी से बढ़ कर कोई वीरता नहीं? 'साहसिकश्‍चौर:' साहसिक चोर का पर्याय होता है, सो इसलिए चोरी से बढ़कर साहस की कहीं जरूरत नहीं होती, सो भी जहाँ तक मैं समझता हूँ कि चित्‍तचोरी में शायद सबसे अधिक साहस की जरूरत पड़ती है। तब तो चित्‍तचोर की यह कला कहीं से सीखनी चाहिए। पिछली चार गऊचोरियों को मूर्ख लोगों के लिए छोड़ दिया जा सकता है पर जो यह पाँचवा सिद्ध चोरी है, उसके लिए कोई देवी-देवता पूजना चाहिए।

हमारे यहाँ इसके देवी-देवता हैं राधाकृष्‍ण। राधा का नाम पहले इसीलिए कि पहले कृष्‍ण की आराधिका बन कर धीरे-धीरे उन्‍होंने चोरों के अगुवा इन महापुरुष का भी चित्‍त चुरा लिया। हाथ की सफाई हो तो ऐसी हो। कृष्‍ण तो जन्‍म से ही चोर थे, नाम ही ठहरा कृष्‍ण अर्थात 'कर्षतीति कृष्‍ण:'खींचनेवाला। गोरू-बछरू छोरना-छिटकना बाद में उन्‍हें आया, गोरस चुराना पहले से ही उन्‍हें सिद्ध था। जमीन की भी कम चोरी उन्‍होंने नहीं की, व्रज की भूमि ही चोरों की भूमि है। ब्रह्मा उन्‍हे चोरी में छकाने चले, खुद छक गए। राज्‍य चोरी करते कराते तो उनका सारा जीवन बीता और रही साहित्‍य चोरी की बात, तो वेदों का सार मथवा कर उन्‍होंने गीता में चुरा कर रख दिया, ऐसी साफ चोरी करने का साहस ही किसी ने न किया होगा। इन सारी किस्‍म की चोरियों में हाथ माँजकर वे चित्‍तचोरी में लगे और फिर इसमें भी कमाल कर दिखाया। किसका चित्‍त बचा जो उन्‍होंने खींच न लिया हो? समस्‍त जड़ चेतन जगत का चित्‍त खींच कर ही वे 'साक्षान्‍मन्‍मथमन्‍मथ:' कहलाए। पर हाय री विधि विडंबना अंत में एक गँवार अहीर की छोहरी ने उनको भी छका दिया और जिसे कोई भी संबंध, कोई भी ममता तनिक भी बाँध नहीं सकती, जिसे कोई भी कुहक लुभा नहीं सका, जिसे कोई भी शक्ति अपनी ओर खींच नहीं सकी, वह एक सीधी-सीदी बालिका की मुट्ठी में हो गया, ऐसी अनहोनी बात होकर ही रही। सो मैं भी गऊचोरी की आराध्‍य देवी राधा के पास जाऊँ, तभी इस कला की कणिका प्राप्‍त हो सकती है। स्‍वयं चोर न बन सकूँ, तो कम से कम चोरी का रसज्ञ तो बन सकूँ।

चोर बनना भी मैं नहीं चाहता, साह बनकर चोर को न्‍यौतना भर चाहता हूँ और चोरी का रस लेना चाहता हूँ, चोर बन जोन पर रस कहाँ से मिलेगा? गऊचोरी की समस्‍या का हल निकालना भी मेरा काम नहीं। मैं द्रष्‍टा बना रहना चाहता हूँ, कर्त्‍तव्‍य की चाह मुझे तनिक भी नहीं है। जानता हूँ, जब तक खेतिहर सरकार न होगी तब‍ तक न तो बैल की ही चोरी बंद होगी न जमीन ही की चोरी। यह भी जानता हूँ कि राज्‍यों की छीना-झपटी भी तभी बंद होगी जब सिद्धांत मनुष्‍य के छोटे हो जाएँगे। जब तक मनुष्‍य अपने बनाए हुए सिद्धांतों के आगे बौना हुआ है, त‍ब तक यह चोरी घट नहीं सकती। साहित्य की गऊ चोरी की रोक-थाम्‍ह भी हो सकती है यदि साहित्‍यकार शब्‍द की साधना करके साहित्‍य लिखने बैठे, जब तक वह शब्‍द में अपना व्‍यक्तित्‍व निविष्‍ट नहीं कर पाता, तब तक वह चोरी से अपना बचाव कर नहीं सकता। पर चित्‍त की चोरी का एक ही इलाज है, किसी छोटे चित्‍तचोर के हाथ चित्‍त जान बूझ कर गँवा देने के पहले चित्‍तचोरों को न्‍यौता दे देना। सो 'चौराग्रगण्‍यं पुरुषं नामामि' चोरों के अग्रण्‍य महापुरुष कृष्‍ण की वंदना करता हूँ, उनकी गऊचोरी की रसविंदु माँगता हूँ, जिससे छोटे गऊचोरों को मैं धता बताता रहूँ।

-विद्यानिवास मिश्र

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