दूर दूर तक फैला मिला आकाश चारों ओर ऊँची पहाड़ियाँ शांत नीरव वातावरण दूर-दूर तक कोई कोलाहल न था। शांति केवल शांति।
काश ! ऐसी शांति मेरे जीवन में भी आ पाती। जीवन में चारों ओर से बढ़ता हुआ कोलाहल ऐसा लगता था मन का भावनाओं को जीवनेच्छा के सागर को तीव्र वेग से एकाएक एक पल में ही विकीर्ण कर देगा।
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दिन का आना रात का जाना सभी को नाम दिया जाता है मात्र ‘प्रकृति के परिवर्तन' क्रम का। फिर मनुष्य जीवन के ग़म और ख़ुशी को भी सहज उतार-चढ़ाव के रूप में क्यों नहीं स्वीकारता।
-- विडम्बना है कुछ जीवन की जो कृत्रिमता के सुखी आवरण को उतार कर वास्तविकताओं का दर्शन करा देती हैं और शेष रह जाती है एक तड़प एक घुटन और इन सबके बाद बच जाता है भटकाव। वही भटकाव जो मेरे जीवन की अनिवार्यता बन गया है। लक्ष्य बन गया है जो मंज़िल तक पहुँचा तो देगा पर फिर उसी तरह तड़पा कर भटका कर।
-डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड, न्यूज़ीलैंड |