अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल

रंगीन पतंगें

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया

अच्छी लगती थी वो सब रंगीन पतंगे
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे

कुछ सजी हुई सी मेलों में
कुछ टँगी हुई बाज़ारों में
कुछ फँसी हुई सी तारों में
कुछ उलझी नीम की डालों में
कुछ कटी हुई कुछ लुटी हुई
पर थीं सब अपनी गाँवों में
अच्छी लगती थी वो सब रंगीन पतंगे
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे

था शौक मुझे जो उड़ने का
आकाश को जा छू लेने का
सारी दुनिया में फिरने का
हर काम नया कर लेने का
अपने आँगन में उड़ने का
ऊपर से सबको दिखने का
कैसी अच्छी लगती थीं बेफिक्र उमंगें
अच्छी लगती थी वो सब रंगीन पतंगे
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे

अब बसने नए नगर आया
सब रिश्ते नाते तोड़ आया
उड़ने की अपनी चाहत में
लगता है मैं कुछ खो आया
दिल कहता है मैं उड़ जाऊं
बनकर फिर से रंगीन पतंग
कटना है तो फिर कट जाओ
बनकर फिर से रंगीन पतंग
लुटना है तो फिर लुट जाऊं
बनकर फिर से रंगीन पतंग
फटना है तो फिर फट जाऊं
बनकर फिर से रंगीन पतंग
मैं गिरूं उसी ही आंगन में
और मिलूं उसी ही मिट्टी में
जिसमें सपनों को देखा था
जिसमें अपनों को खोया था
जिसमें मैं खेला करता था
जिसमें मैं दौड़ा करता था
जिसमें मैं गाया करता था सुरदार तरंगें
जिसमें मुझे दिखती थी वो रंगीन पतंगे

काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे
अच्छी लगती थी वो सब रंगीन पतंगे
काली नीली पीली भूरी लाल पतंगे

-अब्बास रज़ा अल्वी

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