अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है; जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई, नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है; होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त-- द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है; शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा, कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है-- देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं, फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है।
--सर्वेश्वरदयाल सक्सेना [काठ की घण्टियाँ]
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