मेरे एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्पष्टवादी और नीतिमान। वह इस राज्य के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूँ। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूँ, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूँ। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यकार चुप्पी साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पापबोध का भी अहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा - चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्त भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्य विकट असहिष्णु है।
काफी देर बाद भ्रम दूर हुआ। मैं भीष्म नहीं हूँ। अगर हिंदी में लिखनेवाला कोई भीष्म हो जाता हो, तो भी मुझे कौन पूछता है? बहुत ज्ञानी गुणी भरे पड़े हैं। मुझसे अवस्था में, ज्ञान में, प्रतिभा में बहुत आगे। मुझे कोई डर नहीं है। 'भविष्य' नामक महादुरंत अज्ञात मुझे किसी गिनती में लेनेवाला नहीं है। डरना हो तो वे ही लोग डरें, जिनकी गिनती हो सकती है। तुम क्यों घबराते हो, मनसाराम, तुम तो न तीन में, न तेरह में। बड़ी राहत मिली इस यथार्थबोध से।
अगाध इतिहासबोध
मगर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि थोड़ा देर के लिए ही सही, भीष्म मुझ पर छाये रहे। प्राचीनकाल में भीष्म जैसा धर्मज्ञ और ज्ञानी खोजना कठिन है। महाभारत का शांतिपर्व इसका गवाह है। कोई समस्या तो भले आदमी ने छोड़ी नहीं। प्राचीन काल के ज्ञानियों में भीष्म मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, अपने अगाध इतिहासबोध के कारण। युधिष्ठिर के हर प्रश्न के उत्तर में वह प्रायः यह कहकर शुरू करते हैं - 'अत्राप्युदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम'। (यहाँ भी लोग इस पुराने इतिहास की नजीर देते हैं।)
किस प्रकार पुराने इतिहास से वह वर्तमान समस्या के सही स्वरूप का उद्घाटन करते हैं और उसका विकासक्रम समझा देते है, वह चकित कर देता है। हर प्रश्न के तह में जाने की उनकी पद्धति आधुनिक युग में भी उपयोगी है। ज्ञान और धर्म के सच्चे रूप को पहचानने में उन्हें कमाल की सफलता मिली थी। यह कहना गलत होगा कि भीष्म के प्रति भारतवर्ष ने कृतज्ञता नहीं दिखाई। आज भी श्रद्धावान लोग भीष्माष्टमी को अपनी श्रद्धा उनके प्रति निवेदन करते ही हैं, परंतु जिस समय मेरे मित्र अत्यंत प्रभावशाली शैली में भीष्म को मेरे ऊपर आरोपित कर रहे थे, उस समय थोड़ी देर के लिए भीष्म का आवेश सचमुच मेरे ऊपर आ गया था। प्रभावशाली भाषा में जादुई शक्ति होती है। उसी से कवि पाठक को अभिभूत करता है, वक्ता उसी के बल पर श्रोता पर छा जाता है। मैं भी कुछ आविष्ट हुआ। भीष्म की ही शैली में बोलने की प्रेरणा जाग्रत हुई थी... अत्राप्युदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम'।
एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण ही आया था।
वह इतिहास यह है। बात सन् 35-36 की है। उन दिनों मैं शांतिनिकेतन में था। एक दिन प्रातः भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणतः प्रातः भ्रमण के लिए तभी निकलता हूँ, जब किसी ऐसे उत्साही घुमक्कड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रातः भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला। भाग्य उस दिन प्रसन्न था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, 'चलो प्रणाम कर लें'। वह आगे चले, मैं पीछे पीछे। धीरे-धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्यान भंग हुआ। देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करके कहा - तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों अवताररूप में सम्मान दिया गया?
मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था। क्या जवाब देता? मैं मन ही मन अपने सोचने की शक्ति की दरिद्रता पर लज्जित हो रहा था। आचार्य सेन ने रक्षा की। गुरुदेव ने हँसते हुए कहा 'आपने तो कुछ सोचा ही होगा। मगर मैं इस पंडित को ही छेड़ना चाहता था। अभी नौजवान है, नया खून, है, मार खाने की अभी शक्ति है, मेरी पीठ तो जर्जर हो चुकी है।' कहकर गुरुदेव खूब प्रसन्न भाव से हँसे। मैंने विनीत भाव से कहा - 'ऐसा प्रश्न तो मेरे मन में कभी उठा ही नहीं, परंतु आप कहते हैं तो सोचूँगा। परंतु क्या सोचूँ, यह बता दें। गुरुदेव के शब्द याद नहीं हैं, पर उनके कथन की मेरे मन पर जो छाप रह गई है, वह यह है कि शर-शय्या पर पड़े भीष्म ने जब भयंकर नरसंहार देखा होगा, उनके जैसे - ज्ञानी के मन में अपनी प्रतिज्ञा, उसके परवर्ती परिणाम आदि बातें क्या उठी नहीं होंगी? मैंने सोचना शुरू किया था। कई प्रतिभाशाली मित्रों से भी सोचने को कहा था, पर सोचता ही रह गया। जिन्होंने सोचने के लिए उकसाया था, वह चले गए। आज मेरे मित्र ने कहा कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया तो बात फिर उमड़कर नए रूप में मानसपटल पर हहरा उठी। लहराई तो क्या होगी।
भीष्म शर-शय्या पर सोए उपयुक्त काल की प्रतीक्षा कर रहे थे - मरने के लिए। जैसे-तैसे, जब-तब, जहाँ-तहाँ मरना भी ठीक नहीं होता। उचित मुहूर्त्त में मरना चाहिए। साधारण मनुष्य मुहूर्त्त का विचार किए बिना ही मर जाते हैं। भीष्म ऐसे नहीं थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब तक उत्तम मुहूर्त न आ जाए तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे। इसका फायदा उठाया युधिष्ठिर ने। सारी शंकाएँ उनसे कह डालीं और उत्तर भी वसूल कर लिए। मेरे एक आदि गुरु ने शर-शय्यावाली कहानी सुनाई थी। उनके कहने का मतलब था कि भीष्म पितामह अनेक बाणों की नोक पर सोए हुए थे। उनका तकिया भी बाणों की नोक का ही बना था। मेरा बालक मन बहुत व्याकुल हो गया था। वह हजार ब्रह्मचारी रहे हों, उन्हें बाणों की नोक तो चुभती ही होगी। बिचारे वृद्ध करवट भी नहीं बदल पाते होंगे। जब बदलते होंगे तब बाण बुरी तरह चुभ जाते होंगे। और उसी में युधिष्ठिर प्रश्नों की बौछार कर रहे होंगे। यद्यपि वह (युधिष्ठिर) तो दयालु थे, तथापि उस समय थोड़ी और दया दिखाते, तो क्या बिगड़ जाता? मैं जब उस दृश्य की कल्पना करता था, तब मुझे बड़ी पीड़ा होती थी, पर दूसरे बच्चे ब्रह्मचर्य की महिमा का अनुभव करते थे और प्रसन्न होते थे। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए यह कोई कष्ट की बात ही नहीं थी। मैं भी उसकी महिमा तो समझता था, पर न जाने क्यों मेरा मन दुखी हो उठता था। बाद में मेरे एक विद्वान बुजुर्ग ने बताया कि 'शर' सरकंडे को कहते थे। उसी से बाण बनते थे, इसलिए 'शर' का अर्थ बाण हो गया। भीष्म वस्तुतः बाणों की नोक पर नहीं, सरकंडों की चटाई पर लेटे थे। वह व्याख्या ठीक है या नहीं, पर मेरे बालक मन को इससे बड़ी राहत मिली थी। सो, भीष्म शर-शय्या पर थे अर्थात सरकंडों की चटाई पर लेटे हुए थे। वैसे, जर्जर बृद्ध के लिए यह भी कम कठोर शय्या नहीं थी, पर चुभनेवाली नहीं होगी। समर्थ पौत्रों ने उसे कुछ तो तरीके से बनवाया ही होगा। युधिष्ठिर ने अच्छा ही किया जो उनका मन बातचीत में उलझाए रखा, परंतु जब युधिष्ठिर और अन्य लोग उन्हें विश्राम करने के लिए छोड़कर चले जाते होंगे, तब एकांत में इस बूढ़े के मन में क्या चिंता रहती होगी? कुछ तो सोचते ही होंगे। श्रद्धालु लोग तो कहेंगे कि वह तुरंत ब्राह्मी स्थिति में चले जाते होंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने तो कहा ही है कि ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाने पर कोई मोह होता ही नहीं। पर जिन्हें श्रद्धा का इतना संबल प्राप्त नहीं है, वे क्या करें? उन्हें लगता है कि भीष्म जैसा ज्ञानी भी कुछ सोचता जरूर होगा।
दोनों बातों का अर्थ
गुरुदेव पूछते हैं कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया, मेरे यह मित्र कहते हैं कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया। क्या दोनों बातों का अर्थ एक ही है? शायद भीष्म को क्षमा नहीं किया गया, इसीलिए उन्हें अवतार नहीं माना गया। कुछ बात है अवश्य। भारतवर्ष किसी बात पर मौन भी रह जाता है, तो उसका कुछ अर्थ होता है। किसी ने नहीं कहा कि भीष्म को अमुक अमुक कारणों से अवतार नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को अमुक-अमुक कारणों से अवतार माना गया। एक को विष्णु का अवतार नहीं कहा गया, क्योंकि वह नहीं थे, एक को मान लिया गया क्योंकि वस्तुतः थे। हमारे मनीषियों ने इसी ढंग से सोचा है।
दिनकरजी महामना और उदार कवि थे। उनसे क्षमा मिल जाने की आशा से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भीष्म अपने बम-भोलानाथ गुरु परशुराम से अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे। पुराने रिकार्ड कुछ ऐसा सोचने को मजबूर करते हैं। फिर भी परशुराम को दस अवतारों में गिन लिया गया और बिचारे भीष्म को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया। क्या कारण हो सकता है?
एकांत में भीष्म सरकंडों की चटाई पर लेटे-लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे? मेरा मन कहता है कि जरूर सोचते होंगे। भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी - वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवदत्त से 'भीष्म' बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो कौरव रक्त रह गया था। तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा। जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी?
भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे। वह भी ब्रह्मचारी थे - बालब्रह्मचारी। पर भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या को अविवाहित रहने को बाध्य किया, तब उन्होंने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने बुझाने तक ही नहीं रुके, लड़ाई भी की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोककल्याण को नहीं समझ सके। फलतः अपहृता अपमानित कन्या जल मरी।
नारदजी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था - सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह 'सत्यस्य वचनम्' को 'हित' से अधिक महत्व दे गए। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में 'सत्यम वचनम्' की अपेक्षा 'हितम्' को अधिक महत्व दिया। क्या भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना 'भीषण' हो सकता है, हितकर नहीं। भीष्म ने 'भीषण' को ही चुना था।
भीष्म और द्रोण भी, द्रोपदी का अपमान देखकर भी क्यों चुप रह गए? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल बच्चेवाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। विचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध माँगनेवाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्था में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है, पर भीष्म तो पितामह थे। उन्हें बाल-बच्चे की फिक्र भी नहीं थी, भीष्म को क्या परवा थी। एक कल्पना यह की जा सकती है कि महाभारत की कहानी जिस रूप में प्राप्त है, वह उसका बाद का परिवर्तित रूप है। शायद पूरी कहानी जैसी थी, वैसी नहीं मिली है। लेकिन आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें, पुराने इतिहासकार इतना गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही उलट दें। सो, इस कल्पना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती। इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ। आजकल भी ऐसे विद्वान मिल जाएँगे, जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहासनिर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हाँकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।
-हजारी प्रसाद द्विवेदी |