जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

बिल और दाना

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 रांगेय राघव

एक बार एक खेत में दो चींटियां घूम रही थीं। एक ने कहा, 'बहन, सत्य क्या है ?' दूसरी ने कहा ‘सत्य? बिल और दाना !'

उसी समय एक मधुमक्खी ने सरसों के विशाल, दूर-दूर तक फैले खेत को देखा। क्षितिज तक फूल ही फूल खिले हुए थे। दो आदमी उस खेत में घूम रहे थे। एक ने कहा, 'इन फूलों के बीच में चलते हुए ऐसा लगता है, जैसे हम किसी उपवन में घूम रहे हों।‘

दूसरे ने कहा, 'कैसी मादक गंध हवा में बह रही हैं ।

मधुमक्खी ने सुना और मुस्कराकर फूल में अपना मुंह लगाया और मन ही मन कहा, 'बेचारे ! कितने लाचार हैं ये लोग। सरसों के बीज से तेल निकालना जानते हैं, लेकिन उसके फूलों का रस लेना नहीं जानते।'

यह सुनकर चींटियां बिल में आ गईं।

यह बात आई-गई हो गई । फागुन ने हवा में मस्ती भरी, चैत ने कोयल के स्वर गुंजाए और कुछ दिन बाद सैकड़ों मक्खियों ने असंख्य फूलों का शहद ला-लाकर पीपल के तने पर एक बड़ा-सा छत्ता लगा दिया। दोनों चींटियों का भी आना-जाना वहीं से था। ये भी सब देखती रहीं।

फसल काटकर वे ही दोनों आदमी उसी पीपल के नीचे बैठे और ऊपर जो नज़र पड़ी तो एक ने कहा 'अरे! क्या ज़ोर का छत्ता लगाया है मक्खियों ने ! खूब मिलकर काम करती हैं ये । अपने खाने का इन्तज़ाम भी खूब करती हैं।'

दूसरे ने कहा, 'आज रात को कंबल देना मुझे थोड़ी देर को। मैं इसको तोडूंगा।'
मक्खियों ने सुना नहीं; क्योंकि वे अपने निर्माण में व्यस्त थीं। अंधेरा हो गया और मक्खियां छत्ते पर जा बैठीं । दूसरा आदमी कंबल ओढ़े चढ़ गया और उसने मक्खियों को झाड़ से हटाकर अंधेरे में छत्ता तोड़ लिया और उतर आया।

मक्खियों पर वज्र टूट पड़ा, लेकिन बेचारी क्या करतीं। वे यह भी नहीं पहचान पाई कि उनकी उगलन को कौन ले गया। उन्होंने कंबल जैसी किसी चीज को काटा, वह दर्द को महसूस ही नहीं करती थी। आखिर करती भी क्यों ?
यों एक सपना उजड़ गया।

दोनों आदमियों ने शहद बोतलों में भरकर रख लिया। उधर मनुष्य का कल्याण करने को एक संत निकले हुए थे । वे दही और शहद ही खाते थे । वे उपदेश यही देते थे कि सब कुछ दान कर दो; अपने पास कुछ मत रखो। संस्कृति का नया युग प्रारम्भ करो।

जब यह उपदेश देते हुए वे गांव आए, तो इन दोनों पर उनकी अहिंसक वाणी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने उन्हें शहद भेंट कर दिया, जिसे देखकर संत की आँखें चमकने लगीं ।

दुपहर हो गई तो उसी पीपल की छाया में संत बैठ गए और अपनी रोटी में उसी शहद को लगाकर खाने लगे। | दो मक्खियां डाल पर बैठी थीं। अब काम कुछ था नहीं। बहुत दिनों की मेहनत बेकार जा चुकी थी। जहां कभी छत्ता था, वहां अब आग से जले काठ की कलौंच-सी बाकी थी।

अचानक एक की निगाह रोटी पर पड़ी, तो उसने कहा, 'बहन मक्खी गुनगुन ! देख तो जरा। लोग तो कहते हैं यह संत है, सबसे कहता है, सब कुछ दान करो, तप करो, पर यह तो शायद शहद खा रहा है, जो हमने इतनी मेहनत से इकट्ठा किया था। चल इसे काटकर इसके ढोंग की सजा तो दे आएं।'

दूसरी मक्खी ने कहा, 'नहीं बहन तुनतुन, अब पापी और झूठे के हाथ में जाकर वह शहद नहीं रहा। उसमें फूलों की मिठास नहीं रही। मनुष्य के स्वार्थ ने उसे हमारे लिए विष बना दिया है, हम शहद फूलों की प्यालियों से समेटती हैं, ऐसी-वैसी जगह से नहीं।'

एक कुत्ता वहां बैठा-बैठा संत की रोटी को देख रहा था। संत तो पेट पूजा के प्रयोग में व्यस्त थे; वे तो नहीं सुन पाए, मगर कुत्ते ने सुन लिया। सोचने लगा कि आखिर यह क्या चीज है जिसके पीछे संत पागल हो गए। लालच आया तो कुत्ता खड़ा होकर पूंछ हिलाने लगा। संत ठहरे दयालु ! एक टुकड़ा उसकी ओर भी फेंका, शहद लगी रोटी देख कुत्ता झपटा, किन्तु शीघ्र ही उसने उगल दिया उसे। शहद उसे बहुत बुरा लगा। और उसने सोचा-आखिर आदमी ने इतनी बुरी चीज़ की चोरी क्यों की? इसे खाने से तो उबकाई आती है।

जब कुत्ते को चैन न पड़ा तो उसने धीरे से कुनभुनाकर कहा, 'बहन तुनतुन ! क्या फूलों में इतनी उबकाई लाने वाली चीज होती है, जो तुम बेवकूफों की तरह इकट्ठा किया करती हो, और क्या इसकी रक्षा करने के लिए तुम अपना विषैला डंक सबको चुभाती फिरती हो ?'

गुनगुन मक्खी हँसी और बोली, 'अरे भैया कुत्ते! तू इसकी असलियत क्या जाने! यह शहद कैसी चीज है, इसे तू क्या समझे ! तू जिस आदमी की जूठन खाता है, वही आदमी हमारी इस उगलन को खाने के लिए चोरी करता है और संत-महात्मा इस थूक को खाकर दानी और त्यागी होने का ढोंग रचते हैं। तू तो सिर्फ रोटी चबा ! तू शहद को क्या समझ सकता है।'

कुत्ता मन ही मन आदमी के बारे में चक्कर में पड़ गया और सोचने लगा--- लोग कहते हैं कि में जूठा खाता हूँ, तो क्या यह आदमी भी जूठन खाता है ?

थोड़ी देर में संत खा-पी चुके और उपदेश सुनने वाले इकट्ठे हो गए। तब संत ने कहा, 'अपना सब कुछ दान कर दो। मक्खियों की तरह सुन्दरता से सत्य निकालना सीखो, जैसे वे फूलों से शहद निकालती है। और मनुष्य के समाज को मिठास दो ! और कुत्ते की तरह निर्लोभी रहो, जो मिठास होने पर भी शहद नहीं चाहता !' इरा प्रवचन को सुनकर मक्खियां मनुष्य का गुणगान करती हुई उड़ गई और कुत्ता पहले से भी अधिक मनुष्य का भक्त हो गया। तब दूसरी चींटी ने पहली चींटी से कहा, 'बचकर चल ! संत को इतना समय नहीं कि हमें देखकर बचकर निकले। सारा सत्य यहीं धरा रह जाएगा।'

उस दिन से लोक में यह प्रचलित हो गया कि मक्खियां इसीलिए बनी हैं कि आदमी के लिए शहद इकट्ठा किया करें और कुत्ता इसलिए पैदा हुआ है कि आदमी की सेवा किया करे। चोरी और दासता से मनुष्य का अहं संतुष्ट होकर नये-नये सन्तों और पैगम्बरों को धरती पर भेजने लगा और मनुष्य, जिसने कि आदर्शों के मूल में केवल अपना स्वार्थ सिद्ध किया था, किसी भी प्रकार संतुष्ट नहीं हो सका। उसे दुःखी देखकर एक बार मक्खियों ने निर्णय किया कि अब की बार जब वह चोरी करने आए तो उसे रोक दिया जाए, क्योंकि चोरी को ही न्यायसंगत समझने के कारण वह घबरा रहा है, और कुत्ते ने सोचा कि मेरी दासता ने इस आदमी को अहंकार में डाल दिया है, अतः मुझे इसका यह दंभ भी मिटाना चाहिए । चुनांचे जब आदमी छ्त्ता तोड़ने गया तो मक्खियों ने काट लिया और कुत्ते ने बगावत कर दी। दोनों का ध्येय था कि अब कोई इनमें दार्शनिक संत बनकर नई मूर्खता प्रकट न करे। किन्तु हुआ यह कि एक नया व्यक्ति खड़ा हुआ और उसने मक्खियों को उड़वा दिया और कुत्ते की पिटाई कराई और कहा, 'जिसमें डंक हो, उसे निकाल दो क्योंकि वह मिठास के पास जाने से रोकता है, और जो बगावत करे उसे दंड दो, क्योंकि बगावत से नियम बिगड़ता है। जो कुछ है, हमारे लिए ही तो है।'

मक्खी और कुत्ता बड़े उदास हो गए। उन्होंने आसमान के सितारे से शिकायत की। सितारा बहुत बुड्ढा था। उसने हँसकर कहा, "बच्चो ! यह आदमी बहुत बड़ा मूर्ख हैं। जब यह इस धरती पर ही नहीं था, मैं तो तब से ही इस धरती को जानता हूं। पर यह अब समझता है कि सब कुछ इसीके लिए है।'

‘कब से देख रहे हो तुम ? क्या हम इसी के लिए बने हैं ?' कुत्ते और मक्खी ने पूछा।

'बहुत दिनों से।' सितारे ने हँसकर कहा। ‘तुम इसके लिए नहीं बने, तुम बने हो मेरे सामने। और मैं तुम्हें हमेशा देखा करूंगा।'

इसी समय बुड्ढा सितारा हिल उठा और आकाश में फिसलकर गिर पड़ा। आकाश में आग सी लगी और फिर सब शान्त हो गया । मक्खी और कुत्ते ने एक दूसरे की ओर देखा और कहा, 'सितारा झूठ कहता था। आदमी ठीक कहता है। और दोनों फिर उसकी सेवा में लग गए। तब दूसरी चींटी ने पहली चींटी से कहा, 'सत्य समझो ।'

पहनी चींटी ने मुस्कराकर कहा, 'समझ गई । जो तूने उस दिन कहा था, वही अन्तिम सत्य है-बिल और दाना ।'

उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला।

- रांगेय राघव

 

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