काश! मैं भगवान होता तब न पैसे के लिए यों हाथ फैलाता भिखारी तब न लेकर कोर मुख से श्वान के खाता भिखारी तब न यों परिवीत चिथड़ों में शिशिर से कंपकंपाता तब न मानव दीनता औ' याचना पर थूक जाता तब न धन के गर्व में यों सूझती मस्ती किसी को तब ना अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न अस्मत निर्धनों की सूझती सस्ती किसी को तब न भाई भाइयों पर इस तरह खंजर उठाता तब न भाई भगनियों का खींचता परिधान होता काश! मैं भगवान होता।
तब किसानों पर किसी का यों न अत्याचार होता तब मचा हर पल जगत में यों न हाहाकार होता तब न ले हल-बैल तपती धूप में वह दीन चलता तब न कवि के लोचनों से अश्रु का झरना निकलता तब न यों मज़दूर पैसे के लिए मजबूर दिखता तब न रोटी की फिकर में इस तरह मज़दूर बिकता तब न यों श्रम-स्वेद कण से लिप्त मानव काम करता तब न हंटर मार देना इस तरह आसान होता | काश! मैं भगवान होता
तब न यों बन दीन मानव मार खाता क्रुद्ध रवि की तब न यों धनवान मानव आह पाता क्षुब्ध कवि की ।'
- दुष्यंत कुमार
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