दे, मैं करूँ वरण जननि, दुःखहरण पद-राग-रंजित मरण ।
भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों; मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों, आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण । लांछना इंधन, हृदय-तल जले अनल, भक्ति-नत-नयन मैं चलूँ अविरत सबल पारकर जीवन-प्रलोभन समुपकरण ।
प्राण-संघान के सिन्धु के तीर मैं, गिनता रहूँगा न, कितने तरंग हैं, धीर मैं ज्यों समीरण करूँगा तरण ।
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' [ वीणा मासिक, जून 1935 ]
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