राष्ट्रभाषा के बिना आजादी बेकार है। - अवनींद्रकुमार विद्यालंकार।

दे, मैं करूँ वरण

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'


दे, मैं करूँ वरण
जननि, दुःखहरण पद-राग-रंजित मरण ।

भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों;
मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों,
आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण ।
लांछना इंधन, हृदय-तल जले अनल,
भक्ति-नत-नयन मैं चलूँ अविरत सबल
पारकर जीवन-प्रलोभन समुपकरण ।

प्राण-संघान के सिन्धु के तीर मैं,
गिनता रहूँगा न, कितने तरंग हैं,
धीर मैं ज्यों समीरण करूँगा तरण ।

- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
[ वीणा मासिक, जून 1935 ]

 

Back

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें