स्वप्न सब राख की ढेरियाँ हो गए, कुछ जले, कुछ बुझे, फिर धुआँ हो गए।
पेट की भूख से आग ऐसी लगी, जल के आदर्श सब रोटियाँ हो गए।
जब से चाणक्य महलों में रहने लगा, मूल्य जीवन के बस कुर्सियाँ हो गए।
लोग जो मुंह दिखाने के काबिल न थे, आज अख़बार की सुर्खियाँ हो गए।
धन सफलता की जबसे कसौटी बना, कल जो कोठे थे अब कोठियाँ हो गए।
जब सिफ़ारिश से सम्मान मिलने लगा, मूल्य प्रतिभा के दो कौड़ियाँ हो गए।
जो पतन के थे साधन सभी कल तलक, आज वे प्रगति की सीढ़ियाँ हो गए।
जिनके सिद्धांत लोहे की दीवार थे, आज वे मोम की मूर्तियाँ हो गए।
योग्यता जब पुरस्कृत नहीं हो सकी, काव्य कुंठा की परछाइयाँ हो गए।
वक्त ने 'हंस' को घाव जितने दिए, वे ग़ज़ल-गीत की पंक्तियां हो गए।
- उदयभानु 'हंस', राजकवि हरियाणा साभार-दर्द की बांसुरी [ग़ज़ल संग्रह]
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