जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में, नींद में दु:स्वप्न आते, भय सताता जागरण में।
बेशरम जब आँख हो तो सिर्फ घूंघट क्या करेगा ? आदमी नंगा खड़ा है सभ्यता के आवरण में ।
घोर कलियुग है कि दोनों राम-रावण एक-से हैं, लक्ष्मणों का हाथ रहता आजकल सीता-हरण में ।
दंभ के माथे मुकुट है, साधना की माँग सूनी, कोयलें सिर धुन रही हैं, बैठ कौवों की शरण में ।
शब्द नारे बन चुके हैं, अर्थ घोर अनर्थ करते, 'संधि' कम 'विग्रह' अधिक है जिन्दगी के व्याकरण में ।
आधुनिक युगबोध ने साहित्य का है रूप बदला, गद्य केवल छप रहा है, गीत के हर संस्करण में ।
जल रहे ईर्ष्या से जुगनू देख यौवन चाँदनी का, ढूंढते हैं दोष बगुले 'हंस' के हर आचरण में ।
- उदयभानु 'हंस' राजकवि हरियाणा साभार-दर्द की बांसुरी [ग़ज़ल संग्रह]
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