राष्ट्रभाषा के बिना आजादी बेकार है। - अवनींद्रकुमार विद्यालंकार।
अभिभावक  (कथा-कहानी)    Print this  
Author:वाचस्पति पाठक

अभिभावक - वाचस्पति पाठक की कहानी

अपरिचित देश के इस नवीन वासस्थान में शरद् ऋतु का मध्यान्ह; मेरे हृदय के अनिश्चित विषाद सा शून्य था। जिसे संसार में कोई काम नहीं––वह कैसे जीता है?–– विषयशून्य हृदय में यह अचिन्तनीय चिन्ता व्याप्त हुई––अजगर भी जीव है, बेचारा विशालकाय शरीर का स्वामी! तमाच्छादित गहन गिरिसंकुल में उसका निस्पृह निरवलम्ब जीवन कितना वेदनापूर्ण होगा?––करुणार्द्र–हृदय व्याकुल हो उठा। 

मैं भूल गया था––हम मनुष्य-सृष्टि की सर्वांगपूर्ण रचना हैं; बुद्धि विशेष ही हमारा अमूल्य साधन है। हम अजगर नहीं, निष्काम नहीं, हमारी शक्ति संसार पर शासन करती है।––स्मृति ने विनीत स्वरों में सभी दुहरा डाला। मेरा अहंकार बाल लहरियों-सा शून्य हृदय में नचाने लगा। 

भाव-विभोर मनुष्य अपने को भूल जाता है। मैं भी आँखें मूँदे चुपचाप पड़ा था। सहसा किसी बालक के रोने का शब्द सम्पूर्ण निस्तब्धता को भंग कर मुझे चैतन्य कर गया। मैंने वातायन से बाहर को ओर देखा। सामने के मकान की दालान में एक बालक रो रहा है और उसका क्रोध से पागल पिता उसे मार-मार कर कह रहा था–– अबे जल्दी से तालाब' की अंग्रेजी बता! नहीं तो मारते-मारते बेदम कर दूँगा। उसके हाथ का बेंत उस बालक के हृदय की भाँति काँप रहा था। 

मेरा सम्पूर्ण आनन्द सिमिट कर उसके आस-पास खड़े लड़कों सा स्तब्ध रह गया। चुपचाप लेटे-लेटे मैं उस निर्मम पिता को देखने लगा। 

बालक मार पड़ने के डर से और अधिक रोने लगा था। 

तू नकल ही साधेगा––बद‌माश, पाजी, गधा कहीं का! मैं अभी तुझे ठीक किये देता हूँ।––कहकर उस पिता ने बालक के कोमल गालों पर दो चपतें जड़ दीं। 

मार पर मार पड़ने से बालक क्षुब्ध हो गया। उसने बड़े विनीत स्वर में कहा––थोड़ी देर में याद कर मैं सब आपको सुना दूंगा, मान जाइये बाबूजी।––बालक की साँस फूलने लगी थी। उसने मौन होकर आज्ञा चाही। 

मैं तुझे खूब ही जानता हूँ। बातों में बहलाता है।––हाथ छोड़ते हुए उसके पिता ने कहा।

बालक ने फूट-फूट कर रोते हुए अपनी वह याचना बार-बार सुनाई; पर क्रोधातुर पिता ने अपना हठ न छोड़ा। पुत्र की बातों पर उसे पूरा अविश्वास था।––सोच कर अभी कह! नहीं तो बचा छोड़ूँगा नहीं––प्रतिज्ञा की तरह उसने अपने लड़के से कहा। 

इस उपद्रव में जो दो-चार पड़ोसी एकत्रित हो गये थे, उन्होंने साहस करके कहा––जाने दो, डाक्टर बाबू, अभी लड़का है, याद कर सुना देगा। 

ये डाक्टर है? मेरे हृदय ने सोच कर सन्तोष पाया। कदाचित् उसे यह विश्वास हुआ; कि डाक्टर होने से ये शिक्षित और समझदार होंगे। अतः अब इस पर दया करेंगे। क्षण भर के लिये डाक्टर से मुझे भी सहानुभूति हो गई। 

डाक्टर ने बड़ी रोष-पूर्ण दृष्टि प्रार्थियों पर डालकर कुसुम-से कोमल अपने उस बच्चे से कहा––आज कुछ नहीं मानूँगा, तुझे मारते-मारते मार ही डालूँगा। भले ही इसके लिये मुझे फाँसी लग जाए। तू जीकर क्या करेगा नालायक!––वे क्रोध से काँप रहे थे। 

विवेचनापूर्ण उनका यह निर्णय सुनकर मैं इस अवस्था में भी हँस ही पड़ा। अपराध की गुरुता मैं समझ न सकता था। 

आये हुये एक-एक कर सभी वहाँ से हटने लगे। निर्दय डाक्टर सदय न होगा––यह विचार लोगों में दृढ़ हो गया। 

आध घन्टे तक और खड़े रह कर डाक्टर ने शायद प्रतीक्षा की; कि यह प्रश्न का उत्तर देकर मुझे इस निष्ठुर व्यापार का फल दे देगा। पर वह न हुआ। तब उसने निराश होकर बालक को चबूतरे के नीचे ढकेल दिया और––इस घर में अगर तू पैर देगा तो निश्चय ही तेरी कुशल नहीं––कह कर उसने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। पिता के मुख पर अपने बचन की दृढ़ता टपक रही थी। 

शाम हो गई है, ऐसा अनुमान कर मैं बिस्तर से ऊब कर उठ गया। लड़का सड़क पर खड़ा रो रहा था। भविष्य की चिन्ता बड़ी कठोर होती है। मुझे तीन दिन यहाँ आये हो चुके थे; पर अभी तक मैंने आफिस में चार्ज नहीं लिया था। क्योंकि इसकी जबरदस्त सम्भावना थी, कि मैं यहाँ से बुला लिया जाऊँगा। मैं यहाँ जिस मकान में ठहरा था उसी के सामने डाक्टर बाबू रहते थे। अभी तक मेरा उनसे कोई परिचय न था। फिर भी समय काटने के लिये मैंने उनसे सामना करके बातचीत करने की ठान ली। इसलिये नीचे उतर कर टहलने लगा। पर जब वे दिखलाई न पड़े तो मुझे उन्हें बुलाने की हिम्मत न पड़ी। उनकी दस-पाँच बालों की लम्बी दाढ़ी, चिपटी तथा आगे को उठी हुई नाक, गहरी नीली आँखें और श्याम आवरण में सरो-सा एकहरा बदन मेरे ध्यान में सहज ही आकार ग्रहण करने लगा। 

मैंने अन्यमनस्क होकर दूसरे मकान में बैठे एक सज्जन की ओर देखा, वे हाथ में गुड़गुड़ी लिये निश्चित मन से उसे पी रहे थे। उनका शान्त गम्भीर सुख-मण्डल अनजान हृदय में भी श्रद्धा उत्पन्न करता था। मुझे अपनी ओर देखते हुए जान कर उन्होंने जिज्ञासा पूर्ण दृष्टि से मुझे देखा। मैं अनुत्तर न रह सका अनायास ही पूछ पड़ा––यहाँ डाकखाना कहाँ है बाबू साहब? 

पास ही तो है––उत्तर देकर उन्होंने बड़े प्रेम से पूछा। आप इसी मकान में ठहरे हैं? 

जी हाँ! पर अभी मेरा यहाँ रहना निश्चित नहीं है।––मैंने विनीत स्वर में कहा। 

अपना थोड़ा परिचय देते हुए मैं उनके समीप जा रहा। मेरे हृदय को ऐसा विश्वास हो रहा था, कि ये इस अनजान देश में भी मेरे परिचित हो सकते हैं! इसी प्रेरणा से मैंने उनके शुभनाम की जिज्ञासा की। 

मुझे लोग जीवनशंकर कहते हैं। सरल भाव से उन्होंने कहा। भक्ति पूर्वक मैंने उनको अभिवादन किया। हृदय आनन्द से परिपूर्ण हो उठा था। भारत के सर्वश्रेष्ठ चित्रकार जीवनशंकर––इस ज्ञान ने प्रवास के वास्तविक सुख को भीतर और बाहर सर्वत्र समुज्ज्वल कर दिया। 

मैंने अत्यन्त कृतज्ञ होकर कहा––आज आपका परिचय पाने से मैंने यहाँ ठहर कर अपना सौभाग्य समझा।

उन्होंने इसे भी मेरी मर्यादा बता कर जब अनुत्तर कर दिया, तब मैं तर्कहीन पराजित विद्यार्थी की भाँति गम्भीर मुद्रा से उनकी ओर देखने लगा। उनकी सहज सरलता और विश्व-व्यापिनी प्रतिष्ठा के बीच वह सौम्य मूर्ति वस्तुतः हृदय को मोह लेने वाली थी। मैं स्वतः उसके समीप गर्व से नत हो गया।

इतने ही में पूर्व-परिचित डाक्टर बाबू छाते से घाम बचाये आ खड़े हुए। मैं विस्मय से उनकी ओर देखने लगा। वे उनकी ओर लक्ष्य कर कहने लगे––मैंने लाख मना किया पर तुम मानते नहीं! उस दुष्ट लड़के को क्यों अपने पास बैठने देते हो? तुम्हारी नकल कर उसने घर की सारी दिवालें रंग डाली हैं और मेरी भी उससे एक किताब नहीं बची। उसका पढ़ना-लिखना चौपट करके तुम क्या पाओग?––क्षुब्ध स्वर में तीर की तरह अन्तिम वाक्य मार कर उन्होंने उनसे उत्तर की आशा की! 

शंकर महाशय जैसे लज्जा से डूब कर मेरी ओर देखने लगे। उनके भीतर का क्रोध गल कर आँखों में आ गया था। संकोच के साथ उन्होंने कहा––आप मुझ पर व्यर्थ ही क्यों दोषारोपण करते हैं? मेरा उस पर क्या अधिकार है? आप उसे खुद ही मना कर मेरे पास बैठने से रोक सकते हैं। 

डाक्टर ने कहा हाँ, सो तो मैं खूब समझता हूँ। आप मुफ्त के बेगार को क्यों मना करेंगे। मूर्ख ने कल का भी दिन योंही बिता कर कुछ नहीं पढ़ा। अब भूखों न मार डाला तो जानना! आज ही शेखी भूल जाएगी देखें उसकी कौन सहायता करता है? 

शंकर महाशय को पूर्ण पराजित करके वे अपने घर की ओर चले गये। मैंने डाक्टर के चले जाने के बाद देखा, ये जैसे अपना सब कुछ गँवा कर निरीह हो गये थे। मैं उन्हें नमस्कार कर, उदास मन अपने डेरे पर लौट आया!

उपर्युक्त घटना को बीते दो-तीन वर्ष हो चुके थे। मेरे हृदय में उस समय इस घटना का कोई प्रभाव पड़ा था यह मैं आज भी सोच कर अधिकार के साथ नहीं कह सकता। पर हाँ––जिस दिन इसके दुष्परिणाम का प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ, उस दिन कितने अप्रत्यक्ष बालकों के लिये मैंने निराश हृदय से कहा था––अभागे देश में भेड़ों की तरह एक ही पथ में हाँक ले जाने वाले मूर्ख-अभिभावकों से उन्हें उनके कौन से अपराध का दण्ड दिला रहे हो भगवान!––मेरा हृदय दुःख, लज्जा और क्रोध से भर गया था। 

उस दिन भादों की घनघोर घटा छाई हुई थी। एक बार कड़ाके की वर्षा हो चुकी थी। फिर भी बादल आकाश में धुएँ की तरह ऊपर-नीचे हो रहे थे। मैं कलकत्ता के अपने 'रूम' में बैठा आफिस के कुछ कागज जाँच रहा था। 

कार्य की गम्भीरता ने मुझे तल्लीन कर रखा था। सहसा चौदह-पन्द्रह वर्ष के एक बालक ने मेरे समीप आकर प्रार्थना के स्वर में कहा।––बाबू मैं कम्पनी का कागज लेकर आया हूँ।––पिऊनबुक उसने मेरे सामने रख दिया। 

मैंने उसकी ओर देखकर लिफाफा उठा लिया। लड़के का सुन्दर मुख अनभ्यस्त परिश्रम से दोपहर के फूल सदृश कुम्हला गया था। 

तुम कहाँ के रहने वाले हो।––मैंने उससे आँख मिला कर सन्देह वश प्रश्न किया। 

पश्चिम––पटने का रहने वाला हूँ बाबू।––लज्जा से पीला होकर उसने कहा।

तुम डाक्टर साहब के लड़के हो!––फिर बिना किसी हिचिक के मैंने दूसरा प्रश्न किया। 

हाँ...।--एक धीमी आवाज डरते हुए बालक के मुंह से निकली। 

मैं लिफाफे को उसी तरह टेबुल पर रख कर बालक की ओर देखने लगा। उस प्रवास की एक-एक घटना मुझे प्रत्यक्ष होने लगी। बालक भीतरी आक्रमणों से क्षुब्ध होकर निस्पन्द खड़ा था। 

तुमको ये तस्वीरें नहीं दिखाऊँगी बाबूजी?--शोर करतो हुई मेरी बालिका कमरे में आ गई। 

तुम नौकरी क्यों करते हो? क्या डाक्टर बाबू...।––मैंने लड़के से पूछा। 

मैं घर छोड़ कर भाग आया हूँ, वह मुझे बहुत मारते थे।––उसने टूटे-फूटे स्वर में कहा। स्वाभिमान से उसकी आँखें पसीजी थीं। 

बाबूजी मैं ये तस्वीरें तुमको नहीं दिखाऊँगी।––कहकर बालिका ने फिर मेरा ध्यान आकर्षित किया। 

शोर न करो लता।––मैंने कुछ डाँट कर कहा। 

ये तुम्हारे पड़ोसी जीवनशंकर की तस्वीरों का अलबम है। उन्हें तो तुम जानते होगे?––मैंने लड़की के हाथ की तस्वीरों की ओर ध्यान दिला कर कहा। 

हाँ––मैं तो उन्हें खूब जानता हूँ। स्कूल से अधिक वे मुझे ड्राइंग पढ़ा चुके थे। मैंने उनसे प्रारम्भिक शिक्षा भी ली थी। वे मुझे बहुत चाहते थे।--बालक ने प्रसन्न होकर कहा। 

लता बीच में टोक कर बोली––बाबू जी, जीवनशंकर जो आज अभी नहीं आये? मैं उन्हें अपनी तस्वीरें जरूर दिखाऊँगी।––कह उसने अपनी तस्वीरें सावधानी से रख लीं। 

मैं इस आकस्मिक घटना को सोचने लगा––यही लड़का और वही चित्रकार-कई बरस पहले और आज फिर! मैंने उसे पीउनबुक पर दस्तखत कर लौटा दिया। और पूछा––क्या फिर उनके संग रह कर तुम चित्रकला सीखना चाहते हो? यदि मैं प्रबन्ध कर दूं। 

बालक सोचने लगा। उसने रुक कर कहा––अच्छा... बाबूजी मैं फिर आऊँगा। 

किन्तु फिर उसका पता नहीं लगा। कुछ दिनों के बाद जीवनशंकर जी भी लौट गये। पर अबतक कभी-कभी लता पूछती है––बाबूजी, वह लड़का फिर नहीं आया?


वाचस्पति पाठक

विशेष : प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और रायकृष्णदास के साथ जिन तीन अन्य युवा कहानीकारों के नाम उस वक्त काशी में लिए जाते थे, उनमें वाचस्पति पाठक भी एक थे। शेष थे––उग्र और विनोदशंकर व्यास।

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