अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
मिनी  (कथा-कहानी)    Print this  
Author:अलका सिन्हा

मिनी--अलका सिन्हा की कहानी

मिनी ने कमरे में धीरे से झांका, मम्मी सो रही थीं। यह और प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। उसने हलकी-सी आवाज लगाई। 

"मम्मी।"

मम्मी ने पता नहीं सुना या नहीं, पर उन्होंने करवट बदली। इस बार कुछ और ऊंची आवाज में मिनी ने पुकारा। मम्मी नींद से चौंक उठीं। 

"क्या हुआ?" स्वर में थोड़ी चिंता, थोड़ा गुस्सा भरा था। 

मिनी एकबारगी लड़खड़ा गई, फिर साहस जुटाकर बोल पड़ी, "मुझे लाइब्रेरी जाना है।" 

"इतनी दोपहर में? कितनी धूप है बाहर!" मम्मी की आवाज कुछ सख्त हो गई। 

"लाइब्रेरी दो बजे खुल जाती है।" 

"खुलने दो, इतनी दोपहर में कहीं नहीं जाना है शाम होने दो, फिर जाना।" मम्मी ने फैसला सुना दिया और बुदबुदाती हुई करवट बदलकर सो गई।। 

"अजीब मुसीबत है।" मिनी पैर पटकती हुई कमरे से बाहर आ गई। 

बरामदे में बाहर की तरफ चिक डली हुई थी। उसने चिक उठाकर देखा, बाहर धूप थी, तेज रोशनी। आंखें मिचमिचाते हुए उसने चिक वापस ढक दी। वह अपने कमरे में लौट आई और रैक पर रखी किताबें टटोलने लगी। किले का रहस्य, नीली हवेली, जादुई तिजोरी-सभी किताबें उसकी पढ़ी हुई थीं। इंद्रजाल कॉमिक्स वह यों ही पन्ने पलटने लगी पीला घोड़ा, मैंड्रेक, लोथार एक-एक शब्द याद था उसे। उसने किताब पटक दी। 

"मिनी, क्यों शोर कर रही है?" विनी सोते सोते बड़बड़ाई। 

मिनी परेशान थी, ऊपर से विनी को बेफ्रिकी से सोते हुए देखकर उसे और भी झल्लाहट होने लगी। पता नहीं, कैसे इतनी नींद आती है विनी को, और मम्मी को भी वह सोच रही थी। दोपहर काटे नहीं कट रही थी। आखिर कोई उपाय न सूझने पर वह किताबों का रैक ही सजाने लगी। कोई और वक्त होता तो उसे किताबें सजाकर रखना अच्छा लगता, लेकिन जब पता हो कि ऐसा समय काटने के लिए किया जा रहा है तब उसमें भी मन नहीं लगता। खैर, किसी तरह उठापटक में चार बज गए। वह साहस कर फिर मम्मी के नजदीक जा पहुंची। 

"मम्मी, चार बज गए हैं" में लाइब्रेरी जा रही हूं।" लगभग निर्णायक स्वर में उसने कहा और कमरे से बाहर निकल आई। मम्मी उनींदी-सी झल्ला पड़ीं, "गज-भर की छोकरी, जरा बात नहीं मानती, नाक में दम कर रखा है। आने दे पापा को, सब बताती हूँ आज..."  

मिनी ने किताब उठाई और दरवाजा पटकते हुए बाहर निकल गई। 

अभी भी धूप में चुभन थी, मगर मिनी को धूप से अधिक कुछ और चुभ रहा था-मम्मी को अगर सचमुच मेरी इतनी ही फिक्र थी तो वह मेरे साथ बैठकर लूडो, सांप-सीढ़ी खेल लेतीं, मेरी दोपहर भी कट जाती और मुझे धूप में निकलना भी नहीं पड़ता, पर मम्मी को तो अपनी नींद की चिंता थी... और विनी कौन-सी कम है? कहने को हम जुड़वां बहनें हैं, पर कौन-सी आदत मिलती है हमारी? मम्मी की लाड़ली बेटी विनी...। जैसे मम्मी कहेंगी, वैसे ही करेगी। स्कूल से आई और सो गई, जैसे पढ़ाई करके नहीं, पहाड़ तोड़कर आई हो...। 

मार्केट के बीच में ऊपर लाइब्रेरी थी। मिनी सीढ़ियां चढ़ गई। लाइब्रेरी में भीड़ नहीं थी। जिस लाइब्रेरी में आने की उसे इतनी व्यग्रता थी, वहां पहुंचने पर उसमें कोई उत्साह नहीं रह गया था। उसने अपनी किताब लौटाई और दो-चार किताबों में से ही कहानी की कोई किताब छांट ली। किताब लेकर वह नीचे उतर आई। 

मन में अजीब-सी उधेड़बुन थी। मार्केट पार, सड़क की बाई ओर जलजीरे वाला अपने मटके पर पानी के छींटे मारता घुंघरू छनका रहा था जबकि दाईं ओर पेड़ की छाया में रंग-बिरंगी बोतलें लिए शरबत वाला बैठा था। बर्फ घिसकर गोला बनाता, उसमें कोई शरबत डालता, गोले का रंग लाल हो जाता मिनी को महसूस हुआ, उसे प्यास लग रही है, पर पास में पैसे कहां थे। मम्मी ने कभी उसे दी ही नहीं पॉकेट मनी। उसने एकाध बार मांगी भी, पर अकेले उसके मांगने से क्या होता, वह थी न मम्मी की भगत--विनी, उसे तो कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई पॉकेट मनी की, इसलिए उसकी जरूरत भी खारिज कर दी गई। 

मिनी आज बहुत आहत महसूस कर रही थी। उसे लग रहा था जैसे किसी को उसकी परवाह ही नहीं है। जाने किस धुन में वह दाई ओर शरबत वाले की तरफ मुड़ गई। घर जाने के लिए उसे बीच से निकलना था, पर बस, मन ही नहीं हुआ घर की ओर जाने का। क्या हुआ जो थोड़ी देर से ही पहुंचेगी तो, वैसे भी किसे इंतजार है उसके लौटने का? मन में अजीब-सी धुकधुकी उठी, पर फिर झटक दिया। उस अनजान सड़क से बतियाती चल पड़ी--सब व्यस्त हैं अपने-अपने में। विनी बहुत है उनकी आशाओं को पूरा करने के लिए, मम्मी की हर बात मानती, रानी बेटी...। मिनी का पैर अचानक ही एक नुकीले पत्थर से जा टकराया। हलकी-सी चीख निकल गई। पर अगले ही पल लगा-मन में लगी चोट ज्यादा कष्टप्रद थी। 

मिनी ने सिर उठाकर देखा--उसकी दाईं ओर कतार से कोठियां बनी थीं, एक से एक आलीशान भव्य। बाई ओर सरकारी मकान थे--प्लास्टर झड़े, उपेक्षित-से। उसे लगा-दाईं ओर विनी खड़ी है और बाईं ओर वह खुद। कितनी साइड लेते हैं मम्मी-पापा उसकी! मिनी सोचने लगी--उस दिन पापा दो लंच बॉक्स लाए थे। मिनी ने अपनी पसंद का लाल टिफिन बॉक्स ले लिया। बस, फिर क्या था, विनी ने ऐसा बेचारा-सा मुंह बनाया जैसे उसके हिस्से का कुछ छीन लिया हो और मम्मी ने भी उसे यों समझाया जैसे विनी ने लाल रंग का डिब्बा नहीं, दुनिया त्याग दी हो उसके लिए। मिनी ने साथ वाले मकान के हेज के पत्ते तोड़ लिए और उन्हें मसल डाला--नहीं जाना मुझे घर--उसने तय कर लिया। 

पापा भी विनी को ही ज्यादा प्यार करते हैं। मिनी की आंखें डबडबा आई। विनी कहेगी टीवी चलाने के लिए तो झट से कार्टून चला देंगे, और मैं कहूं तो पढ़ाने बैठ जाएंगे। उस दिन दोनों के अंग्रेजी में पैंतालीस नंबर आए, पर डांट पड़ी सिर्फ मुझे ही, क्योंकि मैंने विनी की तरह रोने का नाटक जो नहीं किया। विनी को तो कहा--कोई बात नहीं, अगली बार सुधार लेना, जबकि मुझे डपट दिया थोड़ी मेहनत करती तो अच्छे नंबर नहीं आते? अरे, विनी ने तो की थी मेहनत, उसके क्यों नहीं आए अच्छे नंबर? मिनी ने अपने कटे हुए बालों को पीछे झटक दिया--नहीं जाऊंगी, नहीं जाऊंगी घर। ऐसी जिंदगी जीने से तो बेहतर है बाहर रहकर धनिया-पुदीना बेच लूं। उसने आत्मविश्वास से गर्दन चारों ओर घुमाई। सामने जूस वाले की दुकान थी, गन्ने का जूस बना रहा था भाई। भीड़ लगी थी। फिर कतार से सब्जी वालों की भीड़ थी। शाम हो गई थी, सब्जी मंडी में अच्छी गहमागहमी थी। वह रास्ता बनाती आगे बढ़ने लगी। दुकानदार चीख-चीखकर आलू-प्याज के भाव बता रहे थे। एक टमाटर वाला बड़े सुर में गा रहा था-- 

ताजा यहीं मिलेगी भइया 
बाकी सब बेकार है... 

उसे बरबस ही हँसी आ गई। कुछ पल को बहल गई उसकी तबीयत--सुख तो यह है, कितनी मस्ती से जी रहे हैं सब अपनी-अपनी जिंदगी! 

सब्जी वालों की दुकानें खत्म होने लगी थीं और अब कसाइयों की जमात शुरू हो गई थी। कटे हुए बकरे लटक रहे थे, दड़बों में बंद मुर्गे इधर-उधर फुदक रहे थे, बेखबर कि किसी भी वक्त उनका मालिक ही उन्हें हलाल कर देगा। अजीब-सी दुर्गंध वातावरण में भर गई थी। मिनी को बेचैनी-सी महसूस हुई, पर वह वापस नहीं लीट सकती थी, पीछे वही भीड़-भरी सब्जी मंडी थी। यहां भीड़ कम थी, एक संकरा-सा रास्ता बाहर को निकलता था। दुकान के किनारे, नांद में कुछ मछलियां तैर रही थीं नहीं, छटपटा रही थीं-- 

मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, 
हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। 

मिनी को अचानक ही याद आ गई यह कविता। उसका मन मछली-सा तड़प उठा। सामने पगडंडी दो तरफ को बंट रही थी। वह तेजी से निकल जाना चाहती थी। वह एक ओर मुड़ने ही लगी कि ठीक बीचोबीच एक कुत्ता आ गया, वह थोड़ा घबरा गई। उसे कुत्ते से बहुत डर लगता था। दूसरी ओर मुड़ना चाहा तो देखा--पान की दुकान पर दो लड़के अजीब नजरों से उसे घूर रहे थे। मिनी एकबारगी सिहर उठी। अभी हाल ही में उसने शीशमहल की राजकुमारी में पढ़ा था कि रंगा और मंगतू किस तरह बच्चों को पकड़कर ले जाते थे। फिर हाथ-पैर तोड़कर उनसे भीख मंगवाते थे। मिनी घबराहट दबाते हुए कुत्ते वाली साइड से ही मुड़ने लगी कि हड़बड़ाहट में एक मोटे आदमी से टकरा गई। 

"क्या हुआ? रास्ता भूल गए हो क्या आप?" उस सफेद कुर्ते वाले ने पूछा तो मिनी एकदम रुआंसी हो गई, "अंकल, कृष्णा कॉलोनी किधर पड़ती है?" 

"कृष्णा कॉलोनी तो खासी दूर है, कोई साथ नहीं है तुम्हारे?" मिनी घबरा गई कि अब चोरी पकड़ी गई उसकी, पर फिर थोड़ा संयत होकर उसने कहा, "नहीं अंकल! एक फ्रेंड के घर जाना थां, कौन-सी सड़क उस तरफ जाएगी, बस आप इत्ता बता दीजिए, घर मुझे ध्यान आ जाएगा।" 

उस व्यक्ति ने उसे बाईं ओर का इशारा कर उसकी जान बख्शी। मिनी 'थैंक्स' बोलकर तेजी से आगे बढ़ गई। 

मिनी महसूस कर रही थी कि वह घर से काफी दूर निकल आई है और रास्ता भी भटक गई है। उसने देखा कि घबराहट में वह अपने सारे नाखून कुतर चुकी थी। वह लगभग दौड़ती जा रही थी। सामने नीचे के मकान में कोई महाशय पौधों में पानी डाल रहे थे। चारों ओर मिट्टी की सोंधी सुगंध भर गई थी और साथ ही उसका मन याद-ए-वतन यानी घर की याद से तड़प उठा था। पापा अब तक घर आ चुके होंगे। उसकी खोज हो रही होगी। मम्मी ने तो शिकायतों की झड़ी लगा रखी होगी--कहना तो मानती ही नहीं न, लाख मना किया, मगर धूप में ही लाइब्रेरी चली गई...। 

वह फिर दोराहे पर खड़ी थी। एक भी पल गंवाए बिना उसने पौधों में पानी डाल रहे व्यक्ति से पूछ लिया कृष्णा कॉलोनी का रास्ता। अब अंधेरा झिटपुटाने लगा था। मिनी हड़बड़ाती-सी चली जा रही थी। सामने फिर मार्केट आ गया। कितने मार्केट हैं इन सरकारी कॉलोनियों में? मिनी मन ही मन झल्ला पड़ी। मार्केट के दाईं ओर से कुछ फौजी वर्दी पहने तेज चाल से चले आ रहे थे। कोई और वक्त होता तो मिनी ठहरकर इन जवानों को जाते देखती, पर आज वह थोड़ा परेशान थी। एक क्षण ठिठककर वह फिर तेज चाल से आगे बढ़ चली। 

अब उसे रास्ता समझ आने लगा था। जैसे-जैसे वह घर के नजदीक पहुंचती जा रही थी, उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। मेन रोड से अब वह अंदर वाली सड़क पर आ गई थी। उसके घर के सामने वाले पार्क में उसका कोई साथी दिखाई न दिया। सभी खेल-कूदकर घर लौट चुके थे। मिनी की धड़कनें तेज हो गई। सीढ़ियों से ऊपर देखा तो बाल्कनी में खड़ी मम्मी ने पापा को आवाज लगाई, "अरे देखिए, वह रही, अपनी मिनी ही तो है...।" 

मिनी का खून जैसे जम गया। लगा, जैसे घुटनों से नीचे का हिस्सा सुन्न हो गया हो। सीढ़ियां कैसे चढ़े--समझ नहीं पा रही थी। सारी हिम्मत जवाब दे गई। तभी ऊपर से दरवाजा खुलने की आवाज आई। उसकी धड़कन हथौड़े की तरह बजने लगी। मम्मी की दबी हुई आवाज सुनाई दी, "सुनिए, डांटिए-फटकारिएगा नहीं, प्यार से समझाइएगा।" 

मिनी ने सुना तो पानी-पानी हो गई। वह हिम्मत कर सीढ़ियां चढ़ने लगी। दरवाजे के बाहर ही पापा खड़े थे। दोनों आमने-सामने...मिनी सांस रोके खड़ी हो गई। पापा भी चुप थे। इतने में मम्मी आ गईं,"अरे, ये पैर में चोट कैसे लगी है, कहीं से मार-पीटकर लौटी है क्या?" आवाज में चिंता थी। 

"विनी, इसके हाथ-पैर धुला, देख कितनी मिट्टी लगी है पैरों में...।" पापा ने बड़े सहज स्वर में पुकारा। मिनी ने चोर निगाहों से अपने पैरों की ओर देखा। 

विनी उसका हाथ पकड़कर बाथरूम में ले गई। 

"कहां चली गई थी...?" पैरों पर पानी डालते हुए विनी ने फुसफुसाकर पूछा। मिनी ने दाएं पैर से बाएं पैर को जोर से रगड़ा--वहां अंगूठे पर खून बहकर सूख चुका था। 

"तुझे पता है, मम्मी रो रही थीं...?" विनी ने फिर पूछा तो मिनी छलक पड़ते आंसुओं को थूक के साथ गटक गई। उससे कुछ कहते न बना। 

"पापा कितनी चिंता कर रहे थे, आखिर तू चली कहां गई थी?" विनी ने जोर देकर फिर पूछा।

"एक काला कुत्ता पीछे पड़ गया था उससे बचने के चक्कर में में रास्ता भूल...", मिनी से कुछ कहते नहीं बन पा रहा था। 

बाथरूम के बाहर पापा तौलिया लिए खड़े थे, "लो, मुंह पोंछो और खाना खाने बैठो, सबको तेज भूख लगी है।" 

मिनी ने नजर उठाकर पापा की ओर देखा। आवाज सहज किंतु चेहरे पर चिंता की व्याकुल लकीरों के निशान अब भी दिखाई पड़ रहे थे। मिनी की आँखें छलछला आई। उसने झट पापा के हाथों से तौलिया छीना और मुंह छुपाकर रो पड़ी। 

-अलका सिन्हा 
[साभार: इनसे कैसा नेह, किताबघर प्रकाशन, दिल्ली]

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