अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
हैदराबादी कुर्सी (विविध)    Print this  
Author:डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो 'सिंहासन', मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।

अब बात करें सिंहासन की, तो आजकल वो कुर्सी बन गया है। पहले राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते थे, और शेर की तरह दहाड़ते थे, अब ये कुर्सी वाले भी कम नहीं हैं। कुर्सी पर बैठते ही बंदा खुद को असली शेर समझने लगता है। कुर्सी का अंग्रेजी नाम 'चेयर' है, जो अंग्रेजों की देन है। वैसे, उन्होंने हमें रंगरेज बना दिया, हर चीज़ में अपने रंग भर दिए। अब ये 'चेयर' असल में 'चीयर' से निकला है, जो उनके दोस्त-चमचों ने कुर्सी पर बैठने वाले पहले हिन्दुस्तानी को चियर-चियर करके इतना चीयर किया कि वो चेयर हो गया।

अब भाई, हम भी एक रिसर्च करने लगे थे, टॉपिक था ‘सिंहासन से कुर्सी तक – एक नज़र’। इसके लिए हमने किसी प्रोफेसर को गाइड नहीं बनाया, सीधे हमारे शहर के एक मंत्री साहब को गाइड बना लिया। उनकी एक खासियत थी – जब तक मंत्री रहे, उनका मुँह हमेशा टेढ़ा रहता था। सीधे मुँह बात कभी की ही नहीं। मुँह से सीधे शब्द भी निकलते थे, तो टेढ़े हो जाते थे। जैसे ही कुर्सी छूट गई, मुँह एकदम सीधा हो गया। फिर सोचा कि भाई, गलती मंत्री जी की नहीं, बल्कि कुर्सी की है।

एक दिन हम मेगनीफाइंग ग्लास लेकर मंत्री जी की कुर्सी का मुआयना करने लगे। वहाँ हमें छोटे-छोटे खटमल जैसे जीव मिले, जो सिर्फ वीआईपी लोगों की कुर्सियों में पनपते हैं। ये जीव, मंत्री साहब के साथ उनके बंगले तक चले आते थे और वहाँ जाकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेते थे। ये जीव परिवार नियोजन के सख्त खिलाफ थे। जो भी इन कुर्सियों पर ज्यादा समय तक बैठता, उसका मुँह भी टेढ़ा हो जाता। वजह ये कि ये जीव कुर्सीधारी के खून में से जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, और काम के प्रति निष्ठा के कीटाणु चूस लेते हैं, और बदले में अहंकार, चालाकी, और वाक् पटुता के कीटाणु भर देते हैं। कुछ ही दिनों में कुर्सीधारी में बदलाव दिखने लगता है, और उसे इन जीवों से कटवाने का ऐसा नशा हो जाता है कि बिना इनके काटे एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल हो जाता है।

अब हमारे हैदराबाद में एक बड़े ही नेक जनसेवक हैं। सोते-जागते जनसेवा करना उनकी आदत है। कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में हर किस्म की चीजें ठूंसे हुए, बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मदद करते हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा को देखते हुए शहर के कुछ बड़े लोग सोचने लगे कि इन्हें विधानसभा में होना चाहिए ताकि ये और अच्छी तरह से सेवा कर सकें। सो 67 में उन्हें जबरदस्ती एमएलए बना दिया गया। कुछ दिन कुर्सी पर बैठने के बाद ये जनसेवक भी कुर्सी के जीवों के असर में आ गए। अब हाल ये है कि कुर्सी के बिना उनका नशा पूरा ही नहीं होता। एक साथ तीन-तीन कुर्सियों पर बैठे रहते हैं, और हमेशा ऐसी कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें ज्यादा जीव बसते हों। सुना है कि एक खास मंत्रालय की कुर्सी में ये जीव भर-भर के होते हैं, तो अब जनाब उसी कुर्सी के पीछे पागलों की तरह दौड़ते फिर रहे हैं।

इससे सेठ लोग बहुत समझदार होते हैं। उन्हें पता है कि कुर्सी का नशा नुकसानदेह होता है। इसलिए उनकी दुकानों में कुर्सियों की जगह तख्त होते हैं, और उन पर मोटे गद्दे और तकिए रखते हैं। सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करता है, दाँत निपोरे रहता है, और इतनी दीनता दिखाता है कि तोंद के नीचे उसका सिर ही नहीं दिखता।

तो भाई, हैदराबाद की कुर्सी का मिजाज ऐसा है कि उस पर बैठते ही आदमी को अपने अहम का पूरा एहसास हो जाता है। ये कुर्सी धर्म, जाति, सब में बराबर है। चाहे कोई भी धर्म मानने वाला हो, कुर्सी उसे अपनाने में एक पल भी नहीं लगाती। आखिर, कुर्सी के जोड़ों में जो जीव बसे हैं, वो जानते हैं कि खून तो हर धर्म का लाल ही होता है, और उन्हें हर धर्म के लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, और जनसेवा का खून चाहिए, जिससे वे खुद को तंदुरुस्त रख सकें।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
 ई-मेल : drskm786@gmail.com

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