अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
जब सुनोगे गीत मेरे... (काव्य)    Print this  
Author:आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

दर्द की उपमा बना मैं जा रहा हूँ,
पीर की प्रतिमा बना मैं जा रहा हूँ।
दर्द दर-दर का पिये मैं, कब तलक घुलता रहूँ।
अग्नि अंतस् में छुपाये, कब तलक जलता रहूँ।
वेदना का नीर पीकर, अश्रु आँखों से बहा।
हिम-शिखर की रीति-सा मैं, कब तलक गलता रहूँ।
तुम समझते पल रहा हूँ, मैं मगर,
दर्द का पलना बना मैं जा रहा हूँ।

पावसी श्यामल घटा में, जब सुनोगे गीत मेरे।
बदनसीबी में सिसकते, साज बिन संगीत मेरे।
याद उर में पीर बोये, नीर नयनों में संजोये।
दर्द का सागर लिये हूँ, रो उठोगे मीत मेरे।
तुम समझते गा रहा हूँ, मैं मगर,
दर्द की गरिमा बना मैं जा रहा हूँ।

दर्द पाया, दर्द गाया, दर्द को हर द्वार पाया।
दर्द की ऐसी कहानी, दर्द हर दिल में समाया।
मैं अछूता रहूँ कैसे, कोठरी काजल की जैसे।
सुकरात, ईशु, राम शिव ने, दर्द में जीवन बिताया।
दर्द में जन्मा, पला, और मर गया मैं,
दर्द का ओढ़े कफ़न, मैं जा रहा हूँ।

-आनन्द विश्वास

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश