अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
दुःख  (कथा-कहानी)    Print this  
Author:यशपाल | Yashpal

जिसे मनुष्य सर्वापेक्षा अपना समझ भरोसा करता है, जब उसी से अपमान और तिरस्कार प्राप्त हो, मन वितृष्णा से भर जाता है; एकदम मर जाने की इच्छा होने लगती है; इसे शब्दों में बता सकना सम्भव नहीं।

दिलीप ने हेमा को पूर्ण स्वतन्त्रता दी थी। वह उसका कितना आदर करता था; कितनी आन्तरिकता से वह उसके प्रति अनुरक्त था? बहुत-से लोग इसे 'अति' कहेंगे। इस पर भी जब वह हेमा को सन्तुष्ट न कर सका और हेमा केवल दिलीप के उसकी सहेली के साथ दूसरे 'शो' में सिनेमा देख आने के कारण रात भर रूठी रहकर सुबह उठते ही माँ के घर चली गई, तब दिलीप के मन में क्षोम का अन्त न रहा।

सितम्बर का अन्तिम सप्ताह था। वर्षा की ऋतु बीत जाने पर भी दिन भर पानी बरसता रहा। दिलीप बैठक की खिड़की और दरवाजे पर पर्दे डाले बैठा था। वितृष्णा और ग्लानि में समय स्वयं यातना बन जाता है। एक मिनिट गुजरना मुश्किल हो जाता है। समय को बीतता न देख दिलीप खीझकर सो जाने का यत्न करने लगा। इसी समय जीने पर से छोटे भाई के धम-धमकर उतरते चले आने का शब्द सुनाई दिया। अलसाई हुई आँख को आधा खोल उसने दरवाजे की ओर देखा। छोटे भाई ने पर्दे को हटाकर पूछा--'भाई जी, आपको कहीं जाना न हो तो मैं मोटर साइकिल ले जाऊ?' इस विघ्न से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए दिलीप ने हाथ के इशारे से उसे इजाजत दे, आँखें बन्द कर लीं।

दीवार पर टंगे ब्लाक ने कमरे को गुंजाते हुए छः बज जाने की सूचना दी। दिलीप को अनुभव हुआ--क्या वह यों ही कैद में पड़ा रहेगा। उठकर खिड़की का पर्दा हटाकर देखा, बारिश थम गई थी। अब उसे दूसरा भय हुआ, कोई आ बैठेगा और अप्रिय चर्चा चला देगा।

वह उठा। भाई की साइकिल ले, गली के कीचड़ से बचता हुआ और उससे अधिक लोगों की निगाहों से छिपता हुआ वह मोरी दरवाजे से बाहिर निकल, शहर की पुरानी फसील के बाग से होता हुआ मिंटो पार्क जा पहुँचा, उस लम्बे-चौड़े मैदान में पानी से भरी घास पर पछवा के तेज झोंकों में ठिठरने के लिए उस समय कौन आता?

उस एकान्त में एक बेंच के सहारे साइकिल खड़ाकर वह बैठ गया। सिर से टोपी उतार बेंच पर रख दी। सिर में ठण्ड लगने से मस्तिष्क की व्याकुलता कुछ कम हुई।

खयाल आया, यदि ठण्ड लग जाने से वह बीमार हो जाए, उसकी हालत खराब हो जाए तो वह चुपचाप शहीद की तरह अपने दुःख को अकेला ही सहेगा। किसी को अपने दुःख का भाग लेने के लिए न बुलाएगा। जो उस पर विश्वास नहीं कर सकता, उसे क्या अधिकार कि उसके दुःख का भाग बंटाने आए? एक दिन मृत्यु दबे पांव आएगी और उसके रोग के कारण हृदय की व्यथा और रोग को ले, उसके सिर पर सान्त्वना का हाथ फेर उसे शांत कर चली जावेगी। उस दिन जो लोग रोने बैठेंगे, उनमें हेमा भी होगी। उस दिन उसे खोकर हेमा अपने नुकसान का अन्दाजा कर अपने व्यवहार के लिए पछतायेगी। यही बदला होगा दिलीप के चुपचाप, दुःख सहते जाने का, निश्चय कर उसने सन्तोष का एक दीर्घ निश्वास लिया। करवट बदल ठण्डी हवा खाने के लिए वह बैठ गया। समीप तीन फलांग पर मुख्य रेलवे लाइन से कितनी ही गाड़ियाँ गुज़र चुकी थीं। उधर दिलीप का ध्यान न गया था। अब जब फ़्रंटियर मेल तूफान वेग से, तीव्र कोलाहल करती हुई गुजरी तो दिलीप ने उस ओर देखा। लगातार फर्स्ट और सेकण्ड के डिब्बों से निकलने वाले तीव्र प्रकाश से वह समझ गया--फ्रंटियर-मेल जा रहा है, साढ़े नौ बज गये।

स्वयं सहे अन्याय के प्रतिकार की एक सम्भावना देख उसका मन कुछ हलका हो गया था। वह लौटने के लिए उठा। शरीर में शैथिल्य की मात्रा बाकी रहने के कारण साइकल पर न चढ़ वह पैदल-पैदल बागोंबाग, बादशाही मसजिद से टकसाली दरवाजे और टकसाली से माटी दरवाजे पहुँचा। मार्ग में शायद ही कोई व्यक्ति दिखाई दिया हो। सड़क किनारे स्तब्ध, खड़े बिजली के लैंप निष्काम और निर्विकार भाव से अपना प्रकाश सड़क पर डाल रहे थे। मनुष्यों के अभाव की कुछ भी परवाह न कर, लाखों पतंगे गोले बाँध बाँधकर, इन लैंपों के चारों ओर नृत्य कर रहे थे। और जगत् के यह अद्भुत नमूने थे। प्रत्येक पतंगा एक नक्षत्र की भाँति अपने मार्ग पर चक्कर काट रहा था। कोई छोटा, कोई बड़ा दायरा बना रहा था। कोई दायें को, कोई बायें को, कोई आगे को, कोई विपरीत गति में, निरन्तर चक्कर काटते चले जा रहे थे। कोई किसी से टकराता नहीं। वृक्षों के भीगे पत्ते बिजली के प्रकाश में चमचमा रहे थे।

एक लैंप के नीचे से आगे बढ़ने पर उसकी छोटी परछाईं उसके आगे फैलती चलती। ज्यों-ज्यों वह लैंप से आगे बढ़ता, परछाई पलटकर पीछे हो जाती। बीच-बीच में वृक्षों की टहनियों की परछाई उसके ऊपर से होकर निकल जाती। सड़क पर पड़ा प्रत्येक भीगा पत्ता लैपों की किरणों का उत्तर दे रहा था। दिलीप सोच रहा था मनुष्य के बिना भी संसार कितना व्यस्त और रोचक है। कुछ कदम आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे नींबू के वृक्षों की छाया में कोई श्वेत-सी चीज दिखाई दी। कुछ और बढ़ने पर मालूम हुआा कोई छोटा-सा लड़का सफेद कुर्ता पायजामा पहिने एक थाली सामने रखे कुछ बेच रहा है। बचपन में गली मुहल्ले के लड़कों के साथ उसने अक्सर खोमचे वाले से सौदा खरीदकर खाया था। अब वह इन बातों को भूल चुका था। परन्तु इस सदी में सुनसान सड़क पर, जहाँ कोई आने-जाने वाला नहीं, यह खोमचा बेचने वाला कैसे बैठा है?

खोमचे वाले के क्षुद्र शरीर और आयु ने भी उसका ध्यान आकर्षित किया। उसने देखा रात में सौदा बेचने निकलने वाले इस सौदागर के पास मिट्टी के तेल की ढिबरी तक नहीं। समीप आकर उसने देखा, यह लड़का सर्द हवा में सिकुड़कर बैठा था। दिलीप के समीप आने पर उसने आशा की एक निगाह उसकी ओर डाली और फिर आँखें झुका लीं।

दिलीप ने और ध्यान से देखा, लड़के के मुख पर खोमचा बेचने वालों की-सी चतुरता न थी, बल्कि उसकी जगह थी एक कातरता। उसकी थाली भी खोमचे का थाल न होकर घरेलू व्यवहार की एक मामूली हल्की मुरादाबादी थाली थी। तराजू भी न था। थाली में कागज के आठ टुकड़ों पर पकौड़ों की बराबर डेरियाँ लगाकर रख दी गई थीं।  

दिलीप ने सोचा इस ठण्डी रात में हमीं दो व्यक्ति बाहर हैं। वह उसके पास जाकर ठिठक गया। मनुष्य-मनुष्य में कितना भेद होता है? परन्तु मनुष्यत्व एक चीज है जो कभी-कभी भेद की सब दीवारों को लांघ जाती है। दिलीप को समीप खड़े होते देख लड़के ने कहा--'एक-एक पैसे में एक़-एक डेरी।'

एक क्षण चुप रह दिलीप ने पूछा--'सबके कितने पैसे?' बच्चे ने उंगली से डेरियों को गिनकर जवाब दिया--'आठ पैसे।'

दिलीप ने केवल बात बढ़ाने के लिए पूछा--'कुछ कम नहीं लेगा?'

सौदा बिक जाने की आशा से जो प्रफुल्लता बालक के चेहरे पर आ गई थी, वह दिलीप के इस प्रश्न से उड़ गई। उसने उत्तर दिया--'माँ बिगड़ेंगी।'

इस उत्तर से दिलीप द्रवित हो गया और बोला--'क्या पैसे मां को देगा?' बच्चे ने हामी भरी।

दिलीप ने कहा, 'अच्छा सब दे दो।'

लड़के की व्यस्तता देख दिलीप ने अपना रूमाल निकालकर दे दिया और पकौड़े उनमें बँधवा लिए। आठ पैसे का खोमचा बेचने जो इस सर्दी में निकला है उसके घर की क्या अवस्था होगी? यह सोचकर दिलीप सिहर उठा। उसने जेब से एक रुपया निकाल लड़के की थाली में डाल दिया। रुपये की खनखनाहट से वह सुनसान रात गूंज उठी। रुपये को देख लड़के ने कहा--'मेरे पास तो पैसे नहीं हैं।'

दिलीप ने पूछा--'तेरा घर कहां है?'

'पास ही गली में है'--लड़के ने जवाब दिया।

दिलीप के मन में उसका घर देखने का कौतूहल जाग उठा। बोला--'चलो मुझे भी उधर से ही जाना है। रास्ते में तुम्हारे घर से पैसे ले लूंगा।'

बच्चे ने घबराकर कहा--'पैसे तो घर भी न होंगे।'

दिलीप सुनकर सिहर उठा, परन्तु उत्तर दिया--'होंगे, तुम चलो।'

लड़का खाली थाली को छाती से चिपटा आगे-आगे चला और उसके पीछे बाइसिकल को थामे दिलीप।

दिलीप ने पूछा--"तेरा बाप क्या करता है?'

लड़के ने उत्तर दिया--'बाप मर गया है।'

दिलीप चुप हो गया। कुछ और दूर जा उसने पूछा--'तुम्हारी माँ क्या करती है?'

लड़के ने उत्तर दिया--'माँ, एक बाबू के यहाँ चौका-बर्तन करती थी, अब बाबू ने हटा दिया।

दिलीप ने पूछा--'क्यों हटा दिया बाबू ने?'

लड़के ने जवाब दिया--'माँ आढ़ाई रुपया महीना लेती थी, जगतू की माँ ने बाबू से कहा कि वह दो रुपये में काम कर देगी। इसलिए बाबू की घरवाली ने माँ को हटाकर जगतू की माँ को रख लिया।'

दिलीप फिर चुप हो गया। लड़का नंगे पैर गली के कीचड़ में कीचड़ करता चला जा रहा था। दिलीप को कीचड़ से बचकर चलने में असुविधा हो रही थी। लड़के की चाल की गति को कम करने के लिए दिलीप ने फिर प्रश्न किया--'तुम्हें जाड़ा नहीं मालूम होता?'

लड़के ने शरीर को गरम करने के लिए चाल को और तेज करते हुए उत्तर दिया--'नहीं।'

दिलीप ने फिर प्रश्न किया--'जगतू की माँ क्या करती थी?'

लड़के ने कहा--'जगतू की माँ स्कूल में लड़कियों को घर से बुला लाती थी। स्कूल बालों ने लड़‌कियों को घर से लाने के लिए मोटर रख ली है, उसे निकाल दिया।'

गली के मुख पर कमेटी का बिजली का लैंप जल रहा था। उसके ऊपर की मंजिल की खिड़कियों से भी गली में कुछ प्रकाश पड़ रहा था। उससे गली का कीचड़ चमक कर किसी कदर मार्ग दिखाई दे रहा था।

संकरी गली में एक बड़ी खिड़की के आकार का दरवाजा खुला था। उसका धुंधला लाल-सा प्रकाश सामने पुरानी ईंटों की दीवार पर पड़ रहा था; इसी दरवाजे में लड़का चला गया।

दिलीप ने झांककर देखा मुश्किल से आदमी के कद की ऊंचाई की कोठरी में जैसी प्रायः शहरों में ईंधन रखने के लिए बनी रहती है--धुआं उगलती मिट्टी के तेल की एक ढिबरी अपना धुंधला लाल प्रकाश फैला रही थी। एक छोटी चारपाई, जैसी कि श्राद्ध में महाब्राह्मणों को दान दी जाती है, काली दीवार के सहारे खड़ी थी। उसके पाये से दो-एक मैले कपड़े लटक रहे थे। एक क्षीणकाय, आधी उमर की स्त्री मैली-सी धोती में शरीर लपेटे बैठी थी।

बेटे को देख स्त्री ने पूछा--'सौदा बिका बेटा?' लड़के ने उत्तर दिया--'हाँ माँ' और रुपया माँ के हाथ में देकर कहा--'बाकी पैसे बाबू को देने हैं।' रुपया हाथ में ले माँ ने विस्मय से पूछा--'कौन बाबू बेटा?' बच्चे ने उत्साह से कहा--'बाईसिकल वाले बाबू ने सब सौदा लिया है। उसके पास छुट्टे पैसे नहीं थे। बाबू गली में खड़ा है।'

घबराकर माँ बोली--'रुपये के पैसे कहाँ मिलेंगे बच्चा?' सिर के कपड़े को संभाल दिलीप को सुनाने के अभिप्राय से माँ ने कहा--'बेटा, रुपया बाबूजी को लौटाकर घर का पता पूछ ले, पैसे कल ले आना।'

लड़का रुपया ले दिलीप को लौटाने आया। दिलीप ने ऊंचे स्वर से, ताकि माँ सुन ले, कहा--'रहने दो रुपया, कोई परवाह नहीं, फिर आ जाएगा।'

सिर के कपड़े को आगे खींच स्त्री ने कहा--'नहीं जी, आप रुपमा लेते जाइये, बच्चा पैसे कल ले आएगा।'

दिलीप ने शरमाते हुए कहा--'रहने दीजिए, यह पैसे मेरी तरफ से बच्चे को मिठाई खाने के लिए रहने दीजिए।'

स्त्री नहीं-नहीं करती रह गई। दिलीप अंधेरे में पीछे हट गया। स्त्री के मुरझाए, कुम्हलाये पीले चेहरे पर कृतज्ञता और प्रसन्नता की झलक छा गई। रुपया अपनी चादर की खूंट में बाँध एक ईंट पर रखे पीतल के लोटे से बांह के इशारे से पानी ले उसने हाथ धो लिया और पीतल के एक बेले के नीचे से मैले अंगोछे में लिपटी एक रोटी निकाल, बेटे का हाथ धुला उसे खाने को दे दी।

बेटा तुरन्त ही कमाई से पुलकित हो रहा था। मुँह बना कहा--'ऊं-ऊ रूखी रोटी।'

माँ ने पुचकार कर कहा--'नमक डाला हुआ है बेटा।'

बच्चे ने रोटी जमीन पर डाल दी और ऐंठ गया, 'सुबह भी रूखी रोटी, हाँ, रोज-रोज रूखी।'

हाथ आँखों पर रख बच्चा मुंह फैलाकर रोना ही चाहता था, माँ ने उसे गोद में खींच लिया और कहा--'मेरा राजा बेटा, सुबह जरूर दाल खिलाऊँगी। देख, बाबू तेरे लिए रुपया दे गए हैं। शाबाश?'

'सुबह मैं तुझे खूब सौदा बना दूंगी, फिर तू रोज दाल खाना।' बेटा रीझ गया। उसने पूछा--'माँ तूने रोटी खा ली?'

खाली अँगोछे को हिलाते हुए माँ ने उत्तर दिया--'हाँ, बेटा अब मुझे भूख नहीं है, तू खा ले!'

भूखी माँ का बेटा बचपन के कारण रूठा था, परन्तु माँ की बात के बावजूद घर की हालत से परिचित था। उसने अनिच्छा से एक रोटी माँ ओर बढ़ाकर कहा--'एक रोटी तू खा ले।'

माँ ने स्नेह से पुचकार कर कहा--'ना बेटा, मैंने सुबह देर से खाई थी, मुझे प्रमी भूख नहीं, तू खा।'

दिलीप के लिए और देख सकना सम्भव न था। दाँतों से होंठ दबा वह पीछे हट गया।

X X X


मकान पर आकर वह बैठा ही था, नौकर ने आ दो भद्र पुरुषों के नाम बताकर कहा, आये थे बैठकर चले गए। खाना तैयार होने की सूचना दी। दिलीप ने उसकी ओर बिना देखे ही कहा--'भूख नहीं है।' उसी समय उसे लड़के की माँ का 'भूख नहीं' कहना याद आ गया। नौकर ने विनीत स्वर में पूछा--'थोड़ा दूध ले आऊँ?'

दिलीप को गुस्सा आ गया। उसने विद्रूप से कहा--'क्यों, भूख न हो तो दूध पिया जाता है? दूध ऐसी फालतू चीज है?'

नौकर कुछ न समझ विस्मित खड़ा रहा।

दिलीप ने खीझकर कहा--'जाओ जी!'

मिट्टी के तेल की डिबरी के प्रकाश में देखा वह दृश्य उसकी आँखों के सामने से हटना न चाहता था। छोटे भाई ने आकर कहा--'भाभी ने यह पत्र भेजा है' ...और लिफाफा दिलीप की ओर बढ़ा दिया।

दिलीप ने पत्र खोला। पत्र की पहली लाइन में लिखा था--'मैं इस जीवन में दुःख ही देखने के लिए पैदा हुई हूँ...।

दिलीप ने आगे न पढ़, पत्र फाड़कर फेंक दिया। उसके माथे पर बल पड़ गये। उसके मुंह से निकला--'काश! तुम जानती दुःख किसे कहते हैं? तुम्हारा पह रसीला दुःख तुम्हें न मिले तो जिन्दगी दूभर हो जाए!'

-यशपाल

*कहानी प्रसून, हिन्दी प्रकाशन, श्रीनगर 

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