स्वदेस में बिहारी हूँ, परदेस में बाहरी हूँ जाति, धर्म, परंपरा के बोझ तले दबी एक बेचारी हूँ। रंग-रूप,नैन-नक्श, बोल-चाल, रहन-सहन सब प्रभावित, कुछ भी मौलिक नहीं। एक आत्मा है, पर वह भौतिक नहीं। जो न था मेरा, जो न हो मेरा फिर किस बहस में उलझें सब कि ये है मेरा और ये तेरा। जब तू कौन है ये नहीं जानता, खुद को ही नहीं पहचानता, कहां से आया और कहां चला जाएगा साथ कुछ भी नहीं, सब पीछे छूट जाएगा। जो छूट जाएगा, तेरे काम नहीं आएगा फिर वो क्या है जो तेरी पहचान है, जिसमें अटकी तेरी जान है। वह देह से परे, भावनाओं का एक जाल है जिससे रहित तेरी काया एक कंकाल है। पर क्या तू कभी इनका मोल कर पाया टुकड़ों में बंटी अपनी पहचान को समेट पाया तू कौन है ये अगर जान ले ख़ुद को अगर पहचान ले तो एक मुलाकात मेरी भी करवाना क्योंकि… खुद को पहचानने की मेरी तलाश अब भी जारी है… तलाश जारी है…
-आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर |