अगस्त का महीना विदेश में बसे भारतीयों के लिए बड़ा व्यस्त समय होता है। कम से कम हमारे यहां तो ऐसा ही होता है। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी पूरे जोरों पर रहती है। अनेक संस्थाएं स्वतंत्रता दिवस का आयोजन करती हैं। नहीं, मैं गलत लिख गया! दरअसल, स्वतंत्रता दिवस नहीं, ‘इंडिपेंडेंस डे'! 'स्वतंत्रता-दिवस' तो न कहीं सुनने को मिलता, न कहीं पढ़ने को। मुझे तलख़ी आई तो साथ वाले ने वेद-वाणी उवाची, ‘हू केयर्स?' यही तो कठिनाई है कि आप ‘केयर' ही तो नहीं करते! ...और करते भी हैं तो जब आप पर आन पड़े, तभी करते हैं!
अगस्त मास के सभी सप्ताहांत में यही चलता है। कभी यहां आयोजन तो कभी वहां आयोजन। मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते है। शहर भर के स्कूलों में 15 अगस्त के आयोजन हुआ करते थे परन्तु हम सब आयोजनों का आनन्द नहीं उठा पाते थे क्योंकि सब आयोजन एक ही दिन यानि 15 अगस्त को और लगभग एक ही समय में होते थे लेकिन जब से यहां न्यूज़ीलैंड में आ बसे तो यही बात खटकती थी कि ढंग से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस भी नहीं मनाया जाता! अपने महात्मा गांधी सेंटर में स्वतंत्रता दिवस ज़रूर गुजराती स्टाइल से आयोजित किया जाता था। सब कुछ गुजराती में होता था। झंडा शाम को लहराया जाता था। उनकी भावना में कदाचित कोई खोट नहीं था। इंगित किया गया तो झट से भूल सुधार हो गई। भूलें होती हैं और सुधारी भी जा सकती हैं बशर्ते न भूल करने वाला दुर्भावनाग्रस्त हो और न इंगित करने वाला। दोनों में से एक के मन में भी खोट हो तो सकारात्मक परिणाम की आशा नहीं!
अधिकतर गुजरात और पंजाब दो ही राज्यों के लोग यहां बसे हुए थे। फिर धीरे-धीरे अनेक राज्यों के भारतीय यहां आ बसे। अब शुरु हुआ विभिन्न स्वतंत्रता-दिवस आयोजनों का सिलसिला! विदेश में रहकर भी देसी लटके-झटकों का सिलसिला! राजनैतिक उठा-पटक और जोड़-तोड़ की राजनीति का सिलसिला!
हिंदी और बिंदी दोनों कोने में बैठी सिसक रही हैं। ‘भारत माता' कब की ‘मदर-इंडिया' हो चुकी है। सब कुछ ‘बॉलीवुडमय' हो गया है। जय बॉलीवुड! इधर स्वयंभू भारतीय नेता लड़ रहे हैं, उधर जनता की मौज लगी है। एक दिन के मेले की जगह पूरा महीना मेलों का मजा लूटो। टिक्की, छोले-भटूरे, मसाला चाय और डोसा का आनन्द उठाओ।
अपने स्वयंभू लीडर इसे, ‘इंडिपेंडेंस एनवर्सरी' ही कहेंगे। ऐसा नहीं है कि उन्हें हिंदी नहीं आती या वह कोई अँग्रेज़ी विश्वविद्यालय की पैदाइश हैं। हिंदी उपयोग न करने से एक तो आप की शान बढ़ती है, दूसरे यदि आप को संसद में जाने का भूत चढ़ा हो तो हिंदी न बोलकर आप अन्य भारतीयों के चहेते भी बन सकते हैं। ये कारण न हों तो फिर एक अन्य कारण भी है--अभी सत्तर-बहत्तर साल ही तो हुए हैं हमें आज़ाद हुए! अँग्रेजी बोलिए, चाहे गलत बोलिए, बस!
अपने यहां कई पत्र, रेडियो और टी वी चल रहे हैं। दुकानदार पत्र, रेडियो और टीवी चला रहे हैं और लेखक व पत्रकार दुकान चलाने की सोच रहे हैं!
अच्छी भीड़ जुटी है! सुना है मुफ़्त पित्ज़ा बंट रहा है! कुछ अपने साथ-साथ अपने बाकी घर वालों के लिए भी पित्ज़ा संभाले हुए हैं। उनके पास तीन-चार पैक हैं। एक महिला कुछ ढूंढ रही हैं। मैं सोचता हूँ इनका शायद कुछ गुम गया है। ‘क्या ढूंढ रही हैं?' ‘यह मुफ़्त पित्ज़ा कहां मिल रहा है?' मैं ऊपर वाले तल की ओर उंगली कर देता हूँ।
बाहर एक दुकानदार ने कुछ बच्चों को बाल-सेवा दे रखी है। पर्चे बांट रहे हैं, ‘स्वतंत्रता दिवस स्पेशल! बादाम साढ़े बारह डालर किलो!'
अंदर कुछ बच्चे अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं। इस समूह का सबसे दुबला-पतला लड़का बिस्मिल अज़ीमाबादी की ‘वीर-रस' की पंक्तियां ‘सरफ़रोशी की तमन्ना.....' जिन्हें कभी 'रामप्रसाद बिस्मिल' सरीखे हट्टे-कट्टे क्रान्तिकारी ने स्वतंत्रता आँदोलन में देशभर में मशहूर कर दिया था, बोल रहा था। थकी सी, धीमी आवाज वाला यह लड़का इन पंक्तियों पर अपना पूरा जोर लगाए हुए था। मुझे डर लगा कहीं यह ज्यादा जोर लगाकर यहां मूर्छित न हो जाए! अब यहां विदेश में मैं हनुमान जी को कहां ढूंढता फिरूंगा कि संजीवन बूटी दिला दो! लड़का बोलते-बोलते भूल गया तो जेब में रखी पर्ची काम आ गई।
लड़के ने वीर-रस पूरा कह सुनाया तो मुझे राहत हुई। दिल किया कि इसकी माताजी से कहूं, इसकी बलाइयां ले लें! कितना बहादुर लड़का है! फिर दिल ने कहा इसकी हौसलाअफ़ज़ाई करो, इसे एक किलो बादाम दिलवा दो! दिमाग ने कहा, ‘रहने दो, इसे तो 250 ग्राम ही काफ़ी हैं!' बादाम अच्छे रहेंगे! पित्ज़ा बांटने की जगह इन्हें बादाम ही बांटने चाहिए थे।
उधर कुछ बतिया रहे हैं, ‘चले क्या?'
‘अरे बस एक बार प्रधानमंत्री को आने दो। उसके साथ फोटो खिंचवाने के तुरंत बाद चल देंगे।
उधर प्रधानमंत्री का प्रवेश होता है। कुछ लोग प्रधानमंत्री के साथ फोटो खिंचवाने की जुगत भिड़ाने में लग जाते हैं।
कुछ भारतीय वृद्ध भी आये हुए है। कुछ लाठी के सहारे तो कुछ व्हील चेयर पर। उनके बच्चे शायद आगे जा चुके हैं या पीछे कहीं फोटो खिंचवाने लग गए होंगे।
जब से हमारे भारतीय मूल के एक-दो सांसद बने हैं तब से कई छुट्ट-भइये भी संसद की राह की जुगत में हैं। तरह-तरह के काम कर रहे हैं पर 'फल' है कि हाथ लगने में ही नहीं आ रहा और किसी-किसी को तो शिकायत है, 'काम हम करते हैं और फल वे खा जाते हैं!' क्या करें, शायद इसी का नाम किस्मत है! फिर भी बेचारे मुन्ना भाई वाली तरज पर लगे ही हुए है कि - 'हम होंगे कामयाब एक दिन!'
‘हू केयर्स?' चलता है तो चलने दो! तुम क्यों कुढ़ रहे हो? जवाब है, अगर आप दुकानदार हैं तो यह भी समझ लें कि जवाब भी वज़नदार है, आपके इस, ‘हू केयर्स का।' इस वक्त जब आप अपनी दुकान या काम-धंधे मे लगे हुए हैं उस समय मैं यह लेखन कर रहा हूँ क्योंकि, ‘आई डू केयर!' इसका आप पर कोई असर होगा कि नहीं पता नहीं, ‘हू केयर्स?'
हमारे प्रधानमंत्री (न्यूज़ीलैंड के प्रधानमंत्री) भी बहुत व्यस्त हैं, इन दिनों। उन्हें भी सब आयोजनों में जाना पड़ेगा। अपने स्वयंभू नेता कोई भी धंधा करें, घाटा नहीं खाते! अपना ‘इंडिपेंडेंस डे' भी छुट्टी वाले दिन ही मनाते है अन्यथा काम-धंधे का नुकसान और भीड़ भी कैसे जुटे? हाँ, अपना धंधा बराबर चलना चाहिए। पापी पेट का सवाल है!
बेचारे प्रधानमंत्री! उन्हें छुट्टी वाले दिन भी काम करना पड़ता है। ‘ओवर टाइम!' क्या करें, पापी वोट का सवाल है!
हाँ, सो तो है! ‘हू केयर्स!'
-रोहित कुमार ‘हैप्पी' [साभार : 21वीं सदी के 251 अंतर्राष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार] |