एक कौआ था। वह रोज नदी-किनारे जाता और बगुले के साथ बैठता। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। बगुला मछलियां पकड़ता और कौए को खिलाया करता। बगुला नये-नये ढंग से रोज़ नई-नई मछलियां पकड़ता रहता, कौए को हर दिन नया-नया भोजन मिलने लगा।
बगुला आसमान में उड़ता। ऊंचा और ऊंचा उड़ता ही जाता। निगाह उसकी बराबर नीचे रहती। मछली को देखते ही वह सरसराता हुआ नीचे आता, अपनी लम्बी चोंच पानी में डुबोता और पैर ऊंचे रखकर झट-से मछली पकड़कर किनारे पर आ बैठता।
कौआ यह सब देखता। उसका भी मन होता कि वह ऐसा ही करे। वह मन-ही-मन सोचा करता, ‘चलूं, मैं भी ऐसा ही करूं। इसमें कौन बड़ी बात है? ऊपर उड़ना, निगाह नीचे की तरफ रखना, मछली दीखते ही नीचे आना, चोंच फैलाकर पानी में डालना, औंधा सिर करके पैर ऊपर की तरफ रखना। मछली पकड़ में नहीं आयेगी, तो आखिर जायेगी कहां?' सबकुछ सोच-विचारकर एक दिन कौआ आसमान में उड़ा। बहुत ऊंचा उड़ा, पर आखिर वह कितना ऊंचा उड़ता?
इसी बीच उसे पानी में एक मछली दिखाई पड़ी। कौआ सरसराता हुआ नीचे उतरा। पैर ऊंचे रखे और चोंच नीची करके फुरती के साथ मछली पकड़ने झपटा, पर मछली वहां से खिसक गई, और चोंच काई में उलझ गई। पैर ऊंचे रह गए। कौआ छटपटाने लगा। ऊपर आने की बहुत मेहनत की, पर सिर तो पानी के अन्दर-ही-अन्दर डूबता चला गया। इसी बीच बगुला वहां पहुंचा। बगुले को दया आ गई। उसने बङी मुश्किल से कौए को पानी के बाहर खींच निकाला। फिर कौए से कहा:
करना हो सो कीजिए,
और न कीजे कग्ग।
सिर रहे सवार में
ऊंचे रहे पग्ग।
उस दिन से कौआ समझ गया और बगुले की नकल करना भूल गया।
- गिजुभाई बधेका
[ गिजुभाई की बाल-कथाएं, सस्ता साहित्य मंडल]