अंडमान के हैवलॉक द्वीप के समुन्द्र तट के पास लंबे ऊंचे पेड़ के नजदीक बने एयर रेस्टोरेंट की ये एक हसीन शाम थी। यह रेस्टोरेंट इतना गोल था कि लगता था मानो खुद प्रकृति ने चाँद को धरातल पर रख गोला खींच दिया हो। नीचे के तल पर रसोई और वॉशरूम थे। उसके ऊपर के तल पर यह चारो तरफ से खुला रेस्टोरेन्ट था। लकड़ी की सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर जाया जा सकता था। ऊपर कुर्सी मेज से लेकर हर एक वस्तु लकड़ी की बनी थी। कुर्सियाँ भी एकदम अलग अंदाज की थी, समुन्द्र की लहरों से छनकर आती हवा माहौल की खुशनुमा बनाती थी। रेस्टोरेंट में खाने वालों के मन को हर्षित करने के लिए संगीत गुंजायमान था। संगीत यंत्र के पास एक लड़का हाथ में माइक लिए था, वह कभी किशोर के गाने गाता तो कभी रफी बनने की कोशिश करता। उसकी आवाज में एक कसक थी। प्रभाकर ने अपनी क्रिसेंट की घड़ी में देखा अभी 2 बजे का वक्त था, रूपल को इस वक़्त तक आ जाना चाहिए था। प्रभाकर को आदत है वक़्त से पहले पहुँचने की, शायद इंतज़ार करना अच्छा लगता है, यद्यपि उसने कभी किसी को इंतजार कराया हो ऐसा उसे याद नहीं पड़ता।
हैवलॉक के इस समुंद्री बीच पर देश-विदेश के सैलानी आते हैं, यह अनोखा रेस्टोरेन्ट उन्हें इतना आकर्षित करता है कि अगर पेट में कुछ खाने कि गुंजाइश न भी तो एक कप चाय तो यहाँ पीते ही हैं, यही वजह है कि यह हर समय चहल-पहल रहती है। रेस्टोरेन्ट का बिल भी अच्छा खासा आता है बावजूद इसके यह जगह प्रभाकर को ख़ासी पसन्द है। जब वह अपनी नियुक्ति के समय पहली बार यहाँ आया था तब से शायद ही कोई वीकेंड हो जब वह यहाँ न आया हो।
प्रभाकर रूपल के आने का इंतज़ार करते हुए बार-बार घड़ी को देखता है, उसने मालबेरो की डिब्बी निकाल कुछ कश लगाए, हर कश के साथ वह धुएँ के छल्ले बनाता है। ऐसा वह तब करता है जब वह ज्यादा चिंता में होता है या फिर बहुत खुश होता है। वेटर उसके पास आकर खड़ा हो गया है। वेटर को देखकर प्रभाकर के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, वेटर समझ जाता है कि वह अभी कुछ भी ऑर्डर करने के मूड में नहीं है, वेटर उसे सिगरेट पीने पर भी नहीं टोकता। लगातार यहाँ आने से वेटर भी उसे पहचानने लगा है। वेटर एक हल्की मुस्कान के साथ उसकी टेबल से चला जाता है मानो कह रहा हो- “सर, आता हूँ मैडम के आने के बाद।“
ढाई बजने को आया तो प्रभाकर सीढ़ियाँ उतर रेस्टोरेन्ट के नीचे चला आया। कुछ देर समुन्द्र की रेत पर चहल-कदमी करने लगा। उसने एक और सिगरेट सुलगा ली। वह एक ताड़ के पेड़ की टेक लगाकर खड़ा हो सिगरेट में लम्बा कस लगाता है, एक अजीब सा तनाव वह अपने माथे की नसों में अनुभव करता है। समुन्द्र की लहरों का उतरना-चढ़ना-गिरना लगातार जारी है। वह आँखें बन्द करके दो-तीन कश सिगरेट के लेता है। करीब पाँच मिनट यूँ ही चुपचाप निकाल देता है। आती-जाती लहरों के साथ वह ज़िंदगी की यादों में खो जाता है।
राज्य की अकादमी में उसका पदस्थ होना एक संयोग से कम नहीं था। साहित्य में प्रभाकर एक जाना-माना नाम है, पोर्ट-ब्लेयर में साहित्य के कार्यक्रमों की शुरुआत का श्रेय भी प्रभाकर को ही जाता है, बेहतरीन सख्शियत के मालिक प्रभाकर से ही पोर्ट ब्लेयर का साहित्य जगत प्रकाशमान है। रूपल की उनसे मुलाक़ात भी एक संयोग ही थी, वह एक भव्य आयोजन था। प्रभाकर को भारत सरकार से मिले पद्मश्री के बाद उप राज्यपाल भवन में उन्हें सम्मानित करने के लिए आयोजन था। रूपल लोकल अखबार “अग्निपथ” के लिए साहित्यिक आयोजन की खबर को कवर करने इस आयोजन में आई थी।
आयोजन के केंद्र बिन्दु को देख उसकी आँखें चौंधिया गयी। पाँच फीट ग्यारह इंच लम्बे जवान के कंधो तक बिखरे बालो को रूपल कुछ पल अपलक देखती रही। गेहूँए रंग के प्रभाकर को देखकर कोई विरला ही अंदाजा लगा सकता कि वह पचास पार का अधेड़ होगा।
कार्यक्रम सम्पन्न हुआ तो लोग खाने के लिए पास के हाल की ओर बढ़ने लगे, प्रभाकर लोगों से घिरे थे। नवलेखन से जुड़े लोग, पत्रकार, आमंत्रित आगंतुक और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के इस भवन में कार्यरत क्रमचारी सभी उनसे ऑटोग्राफ लेने को लालायित थे। रूपल ने भी अपनी ऑटोग्राफ बुक उनकी ओर बढ़ा दी। कोटेशन के साथ किए हस्ताक्षर को बार-बार देख रूपल भविष्य के सपने बुनने लगी। युवा साहित्य सम्मान की शील्ड देते प्रभाकर का चेहरा उसके समाने घूमने लगा। घर आकर आज उसने ऑटोग्राफ बुक को बार-बार चूमा। उसे लगा काश वह इतने बड़े लेखक का संपर्क सूत्र, उनका मोबाइल नंबर जुटा पाती। वह सोचने लगी-“उनसे पुनः कैसे और कहाँ मिला जा सकता है?” रात भर वह इसी ख्याल में खोई रही, पता नहीं उसे कब नींद आई होगी। सुबह उठी तो उसने प्रभाकर को सोशल मीडिया पर खोजने की गरज से फोन उठाया। ट्विटर पर आज हर नामचीन को देखा-खोजा जा सकता है, उसने ट्विटर के सर्च इंजन में प्रभाकर टाइप किया। कितने ही नामों की फेहरिस्त में वह उस खास चेहरे को तलाशती रही। एक-डेढ़ घण्टे की मशक्कत के बाद आखिर वह कामयाब हो ही गयी। ट्विटर के मसेंजर बॉक्स में प्राइवेट मैसेज छोड़ वह वाशरूम की ओर बढ़ गयी।
रूपल को लगा था कि जल्दी ही उसे प्रभाकर की तरफ से रिप्लाई मिलेगा, लेकिन उसकी बेचैनी तब बढ़ गयी जब दो दिन तक भी उसे प्रभाकर का कोई नोटिफिकेशन नहीं मिला। उसने अन्य संचार माध्यमों का सहारा लेने का मन बनाया। फ़ेसबुक, इंस्ट्रग्राम, डयूओ, इमो, यूट्यूब सब जगह वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराती कि कभी तो वे संज्ञान लेंगे। उसे लगातार निराशा ही हाथ लगी।
प्रसिद्धि की बुलंदी पर बैठे महान लेखक को रोमन मग्सेसे मिला तो रूपल को फिर अग्निपथ की तरफ से प्रभाकर से मिलने का मौका मिला। मानो उसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। पुरस्कृत लेखक का साक्षात्कार लेने की ज़िम्मेदारी मुख्य सम्पादक ने उसे सौंपी थी, साथ ही उनका सम्पर्क सूत्र देते हुए समय लेकर जाने की हिदायत दी थी।
रूपल इस मौके को गंवाना नहीं चाहती थी, प्रभाकर से मिलने की इच्छा ने उसके हृदय के स्पन्दन को बढ़ा दिया।
रूपल ने कितनी दफा रिक्वेस्ट भेज इंतज़ार किया था आज उसका सपना पूरा होने का वक़्त था। साक्षात्कार के दौरान उसने खुद को संयत रखने की पूरी कोशिश की। आने वाले आवेग-संवेग को उसने नियंत्रित किया। सवालों की फेहरिस्त के बीच वह मन की बात चाह कर भी न कर पाई।
साक्षात्कार की औपचारिकता निपटा वह अखबार के दफ्तर पहुँच अगले दिन के अंक के लिए सामग्री को ठीक करने में जुट गयी, उसे खुशी थी कि एक बड़े लेखक के नाम के साथ कल सब उसका नाम भी पढ़ेंगे। काम निपटा वह दफ़्तर से निकल घर पहुँची। लेकिन उसे अभी भी निजी पहचान की चिंता सताये जाती थी। उसने फेसबुक पर भेजे मित्रता प्रस्ताव को देखा, जो अभी भी पेंडिंग स्थिति में उसे चिढ़ा रहा था। मैसेंजर पर क्लिक करके उसने आज की मीटिंग का औपचारिक धन्यवाद कर अपनी दो-तीन कवितायें भी भेज दी। दिन की थकान उस पर हवी हुई तो मोबाइल बराबर में रख नींद के आगोश में चली गयी।
प्रभाकर एक संवेदनशील व्यक्ति है, जिसे कविताओं से प्यार है, जिसे संवेदनाओ से प्यार है। लेखन से मन शिथिल हो तो वह सोशल-साइट पर समय बिताने की गरज से चला गया। मैसेन्जर पर टूटी-फूटी कविताएँ देख उसके भीतर के लेखक का जागना स्वाभाविक था। जैसे किसी अच्छे गाने वाले के सामने बेसुरा गाकर उसको उकसाया जाता है और वह यंत्रचालित सा गाने लगता है ठीक वही स्थिति प्रभाकर की भी हुई। कविताएँ को ठीक अनुक्रम में लगा उसने वापिस रूपल को भेज दी। उधर से तुरंत आह! वाह! जैसे शब्दों के साथ कुछ इमोजी भी डिस्प्ले हुई। देखकर प्रभाकर के चेहरे पर मुस्कान आई। उधर रूपल तो बल्लियों उछल रही थी, बिना मांगे तो नहीं लेकिन मुराद जरूर पूरी हो रही थी। प्रभाकर ने आगे वार्तालाप नहीं किया। रूपल फिर थोड़ी मायूस हुई। वह मैसेंजर पर लगातार मैसेज करती, हर दिन ऊपर से एक नया मैसेज ही पढ़ने में आता। लगातार जवाब न आने पर फिर वह एक टूटी-फूटी कविता भेज देती। अपने शौक के लिए व्यक्ति समय और मन दोनों का प्रबंध कर लेता है। प्रभाकर ध्यान से पढ़ता उसे लगता कि कविता में भाव पक्ष सबल है बस सही अनुक्रम न होने से कविता अपनी बात नहीं कह पा रही। उसने सोचा- “वैसे हम किसी को तकनीक सिखा सकते हैं भाव नहीं, अच्छी बात ये है कि यहाँ सिर्फ शब्दों की कीमियागीरी करनी है, अनुक्रम में शब्दों को लगाना है।“ जब भी रूपल उसे कवितायें भेजती, वह उन्हें व्यवस्थित कर देता, रूपल इतने भर से संतुष्ट न थी। अब अपने लेखन से समय निकाल वह रूपल को समय देने लगा। उनका वीकेंड अब एयर रेस्टोरेंट में या समुंदर किनारे बीतता।
सिगरेट का आखिरी कश लेकर प्रभाकर ने फेंका ही था कि उसने रूपल को आते हुए देखा। उसके कदम उसने आने की दिशा की ओर उठ गए। उसकी मानसिक तकलीफ कुछ कम हुईं। दोनों लकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर पहुँच दो कुर्सियों वाली मेज तक पहुंचे थे। बैठकर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। अभी बातें कर ही रहे थे कि वेटर रूपल के पीछे आकर खड़ा हो गया। प्रभाकर की पलकें रूपल के चेहरे से हट वेटर से मुखातिब हुई।
“क्या लेना पसंद करेंगे आप?” –वेटर ने कहा।
सुनकर वे दोनों हँसने लगे मानो कहना चाहते हों, इतने दिनो में क्या तुम्हें हमारी चॉइस का पता नहीं चला, क्यों हर बार तंग करने चले आते हो?
प्रभाकर ने मुस्कराते हुए कहा-“मुझे तो कॉफी विदआउट शुगर ही पिला दो, मैडम से पूछ लो वे क्या पियेंगी।“
“मेरी भी एक रेगुलर कॉफी, साहब के स्टेटस के लायक वैसे भी तुम्हारे इस रेस्टोरेंट में कुछ मिलता ही नहीं है।“
वेटर हर बार ही तरह सोचता है, साहब इतनी बार आते हैं कभी स्टेट्स की बात नहीं करते लेकिन मैडम हमेशा स्टेट्स में ही उलझी होती है। वेटर थोड़ी देर में ही काफी रखकर चला जाता है। रूपल दो शुगर पाउच खोल कप में उड़ेलती है। प्रभाकर ने पलकें उठा उसकी तरफ देखा। रूपल खिलखिला कर कहती है-“आप शुगर नहीं लेते न तो आपके हिस्से की शुगर भी अपने कप में दाल ली प्रभाकर बाबू।“
दोनों दो-दो घूंट कॉफी पीते हैं फिर प्रभाकर कहता है- “नयी पीढ़ी की होने पर भी तुम तकनीकी ज्ञान क्यों हासिल नहीं करना चाहती हो, पिछले काफी समय से देख रहा हूँ तुमने अपनी रचनाओं को सोशल साइट्स पर रायते की तरह बिखरा रखा है।“
“आप बताइये मैं क्या करूँ, जो मुझे अच्छा लगता है, लिख देती हूँ, आप मेरी रचनाओं के प्रथम पाठक भी हो और उनके संपादक भी। फिर मुझे कौन सा आपकी तरह फेमस होना है, बात जहाँ संप्रेषित होनी चाहिए, वहाँ हो रहीं हैं, बस इतना सा ही ख्वाब है मेरा।“
रूपल को न तकनीकी ज्ञान था और न वह परिश्रमी ही थी। कॉफी का शिप लेते हुए उसने कहा-“कभी-कभी मुझे लगता है कि आपको अपना पी ए बना लूँ, सब कुछ लिखा हुआ सहेजने में आसानी होगी।“-कहकर वह खिलखिला उठी। प्रभाकर ने भी ठहाका लगाया, बोला- “सुनो, रूपल! फेसबुक और अन्य अनेक चैनल्स पर बिखरी तुम्हारी कविताएँ वर्ड फाइल में सहेज कर रख दी है, एक जीमेल आईडी भी बनाई है, उसके मेल में भी तुम्हारी रचनाएँ सुरक्षित रख दी हैं, प्रिंट आउट निकाल स्पायरल बाइंडिंग करवाकर साहित्य अकादमी को भी तुम्हारे नाम से भेज दी है।“ असल में प्रकाशन योजना के अंतर्गत विज्ञप्ति थी, प्रभाकर ने सोचा कि रूपल को एक सरप्राइज़ दिया जाये, आज की उनकी मुलाक़ात का ये भी एक मकसद था।
रूपल ने सुना तो उसके मुँह से शब्द नहीं निकाल पाये, वह कहे तो क्या कहे, बस इतना ही बोली-“ मैंने तो मज़ाक में पी.ए. वाली बात काही और आप...?”
प्रभाकर उसके चेहरे के भाव पढ़ता हुआ बोला-“मौसम देख रही हो, बादल घिर आए हैं, लगता है बारिश होगी, तुमने एक बार कहा था न, बारिश में आपके साथ भीगते हुए समुन्द्र के पास उस ऊँचे पत्थर के पास खड़े हो तुम्हारे सीने पर सिर रख खड़े रहना चाहती हूँ, और वो कन्नी अंगुली में अपनी कन्नी अंगुली फँसा समुंदर किनारे टहलने की इच्छा। आज तुम वो सब इच्छाएं पूरी कर सकती हो।“
रूपल ने उसे शरारती निगाहों से देखा, रेस्टरों का बिल चुकता कर दोनों समुन्द्र किनारे आ गए।
प्रभाकर रूपल को पत्र-पत्रिका इत्यादि में रचना भेजने को कहता तो उसका एक ही जवाब होता-“मुझसे न होगा! बाबा, खुद करो।“ शुरू में प्रभाकर यह सोचकर प्रभावित था कि उसको छपास की चाह नहीं परंतु मामला इसके बिल्कुल उलट था। यह बिल्कुल वैसे था जैसे चोर के स्वयं को चोर बताने पर कोई विश्वास नहीं करता। जब कभी वे मिलते साहित्य पर, रूपल के लेखन पर ज्यादा चर्चा होती, वह अक्सर हँसकर कहती-“क्यों सीढ़ी हुए जाते हो लेखक बाबू!”
प्रभाकर धीरे-धीरे रूपल का मकसद समझने लगा था, लेकिन मन मानने को तैयार नहीं होता। उन्होने लगभग अपने सारे साहित्यिक लिंक्स रूपल से शेयर कर दिये थे, कितनी ही दफ़ा वह बिना मशवरा किए प्रभाकर के लिंक्स का फायदा लेने लगी। नूर साहब ने नयी पत्रिका शुरू की, रूपल को सूचना मिली उसने प्रभाकर के हवाले से एक कहानी भेज दी। नूर साहब प्रभाकर की संस्तुति को भला टाल भी कैसे सकते थे, पत्रिका के प्रवेशांक का पीडीएफ़ उन्होने प्रभाकर को उनके मोबाइल पर भेजा था साथ में आभार हेतु नोट भी था, जिसमें लिखा था-“रूपल जी की कहानी आपकी संस्तुति के साथ मिली थी, आपके आग्रह को कैसे टाला जा सकता था।“ उसे याद आया जब उसने एक बार मोबाइल में परेशानी के चलते रूपल के मोबाइल में अपना जीमेल अकाउंट खोला था और उसे साइन आउट करना भूल गए थे। उन्हें आभास होने लगा कि बस प्रसिद्धि के लिए ही किसी का जुडना इस पीढ़ी का शगल रह गया है। उन्हें समझ आया कि उसका लक्ष्य ही मुझको सीढ़ी बनाना था। उसकी कविताओं और कहानियों को एडिट करते उनका खुद का लेखन कहीं पीछे छूटने लगा था। लेकिन तब वे खुश थे कि वह छप रही थी। वह अक्सर आधी-अधूरी कथा कहानी प्रभाकर को भेजती। कभी अंत तो कभी आदि सुझाते-सुझाते उनकी हालत त्रिशंकु जैसी हो गयी।
तीन साल के इस दोस्ताना प्रेम के दौरान अपनी उपलब्धियों पर नज़र दौडाने पर लेखन के नाम पर उन्हें अपने हिस्से एक किताब और छिटपुट कहानियाँ ही नज़र आई।
बातों बातों में एक दिन एक संपादक मित्र कह बैठे कि आपकी किसी मित्र ने रचनाएँ भेजी हैं, साथ में लिखा है कि आपने उनसे ऐसा आग्रह किया है।
प्रभाकर अब महसूस करने लगे कि धीरे-धीरे जबसे रूपल कुछ अच्छा लिखने लगी तो उनकी कही हर बात को कोई न कोई बहाना बना टाल जाती है। वे एक कहानी लिख रहे थे, खुद कहानी से संतुष्ट नहीं दिखे, उन्होने कहानी रूपल को भेजी इस टैग के साथ कि “मेरी कहानी में मुझे कहीं झोल लग रहा है, जरा देखो तो सही।“ उसने जवाब में लिखा-“ पिताजी की तबीयत खराब है और उनके साथ कोई धोखाधड़ी हुई है, मुझे मायके जाना होगा और इस बीच हम मिल भी नहीं पाएंगे। एक-दो घण्टे बाद ही रूपल ने अपने फ़ेसबुक पर स्टोरी शेयर की जिसमें बड़ी सुंदर डांस क्लिप पर टैग लाइन थी –“मस्ती टाइम विद फ्रैंड्स और सो ओन।“
रॉस आइलैंड के ट्विन ट्री के साथ के मैदान में बैठ प्रभाकर रूपल के जहाज के आने का इंतज़ार कर रहा है, रूपल लगभग दो घण्टे बाद आई है। पोर्ट ब्लेयर से एक ही जहाज आता है, सैलानियों को रॉस आइलैंड छोडकर पुन: पोर्ट ब्लेयर जाता है, इस वजह से उसे ज्यादा समय लगा। दोनों साथ नहीं आए हैं, यह बात बताती है कि उनके बीच अब पहले जैसी नज़दीकियाँ नहीं हैं। रूपल के आने से पहले तक वह सोचता रहा-“मुझसे कहती कि सिफारिश से छपे तो क्या छपे और खुद मेरे नाम का भरपूर फायदा....।“
वह उन दोनों के वर्तमान रिश्ते से नाखुश है, उसे अपने अतीत का रह-रह हर वह दृश्य याद आता है जब उसने एक बड़ा निर्णय लेते हुए अपनी पुरानी जिंदगी से छुटकारा पाते हुए रूपल का साथ चुना था। उसे वो दिन आया जब एक छोटे से कमरे में उसका सामान बिखरा पड़ा था जिसे वह बड़ी तेजी से बैग और सूटकेस में पैक कर रही थी और प्रभाकर अचानक वहाँ पहुँच गया था, पहले तो वह सकपकाई थी लेकिन प्रभाकर के पूछने पर उसने बताया था- आज फिर योगेश से उसका झगड़ा हुआ था, बात इतनी सी थी कि योगेश के ऑफिस जाते समय हॉट बोतल में पानी देने में जरा देरी क्या हुई कि उसने खोलता पानी उसके पैरो पर उड़ेल दिया था। सुनकर उनके मुँह से बोल नहीं फूट पाए थे। रूपल को आँखें बन्द किये देखकर प्रभाकर ने उसके बाजू पकड़ शांत्वना देनी चाही, वह उम्मीद कर रहा था कि रूपल आँखें खोले, कुछ प्रतिक्रिया दे तभी वह अपना अगला कदम उठाए। प्रभाकर को याद आया कि ऐसे ही उनकी पत्नी आठ साल पहले गयी थी तब उसने उन्हें रास्कल कहा था, साथ में अय्याश भी, तब प्रभाकर ने उसको थप्पड़ जड़ दिया था। अंततः उससे लड़-झगड़कर वह फ्लैट छोड़कर चली गयी थी। पाँच मिनट तक रूपल के आँखें न खोलने पर और सीने से लिपट जाने पर प्रभाकर भी इसी स्थिति में खड़ा रहा था।
उसकी यादों की तंद्रा न टूटती अगर पीछे से रूपल की आवाज उसके कानों में न पड़ी होती। रूपल के आने पर दोनों रॉस आइलैंड पर घूमते हुए सबसे आखिरी छोर तक पहुँच गए हैं, यह इस आइलैंड का सबसे ऊँचाई का छोर है, पूरा आइलैंड मात्र डेढ़ किलोमीटर लम्बाई लिए हैं, लम्बाई की अपेक्षा इसे ऊँचाई कहना ही अधिक सही होगा। यहाँ आकर दोनों एक-दूसरे के पास एक ऊँचे पत्थर पर बैठे हैं। रूपल ने बताया- “यही वह आइलैंड है जिसने सुनामी के समय पूरे भारत के तटीय क्षेत्रों को भारी तवाही से बचाया, ये न होता तो सुनामी की रफ्तार से न जाने कितनी तवाही होती।“
“तबाही को कौन रोक सकता है, हर रिश्ते में एक सुनामी आता है, और हर बार उसे रोकने या उसकी गति कम करने के लिए रॉस आइलैंड नहीं होता।“
रूपल उनके गम्भीर होते चेहरे हो देख रही है। पहले तो रूपल के चेहरे पर बहुत हैरानी आई लेकिन फिर वह फीकी हँसी हँसने हुए बोली- “आप इतने बड़े लेखक और आलोचक, जिनका राजनीति तक में हस्तक्षेप है, इस तरह मामूली बातों पर आपको विचलित नहीं होना चाहिए।“ प्रभाकर की तरफ मुखातिब होते हुए रूपल ने कहा –“मात्र सरकार की मुखालफत करते हुए लिखे लेख से आपको परेशानी है, जबकि देश में न जाने कितने लेखक हैं जो प्रधान सेवक की शान में लिख रहे, अभी कुछ दिन पहले चार सौ लोगो ने उनकी सराहना करते हुए अपने समर्थन में हस्ताक्षर किया पत्र भी जारी किया।
“टॉप लेखिका इस अदने से लेखक के नाराज, परेशान होने से इतनी हलकान कैसे हो सकती है, ये बात मुझे ज्यादा हैरान कर रही है।“
“किस एंगल से मैं आपको टॉप लेखिका लग रही हूँ, योगेश की ज़्यादतियों से इतना तंग आ चुकी हूँ कि शुगर, ब्लड प्रेशर, हाइपरटेन्शन कोई भी ऐसी बीमारी नहीं है जिसने मुझे न घेर रखा हो। पिछले तीन सालों में ही मैं साठ साल जितनी लगने लगी हूँ।“
प्रभाकर सोचने लगा- जिस दिन योगेश ने खोलता पानी फेंक तुम्हारे वजूद पर पानी फेंक दिया था, उस पल मैंने ही सहारा दिया था, 6 महीने मेरे गेस्ट हाउस में रहने के बाद वापिस योगेश के पास चली तो गई थी लेकिन कितना कुछ साथ ले गई थी, कितने सपने कितने ख्वाब, कितना ज़िंदगी का हिस्सा? लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। बस उसके मन में एक बेचैनी एक उकताहट है। उसकी बेचैनी और उकताहट देखकर वह धीरे से बोली- “अब ये सब मत कहना कि योगेश के पास वापिस जाने का निर्णय भी तुम्हारा खुद का था, इतना समझ लो कि हम मिडिल क्लास लड़कियाँ लड़ाई झगड़े के बाद भी उसी पति को परमेश्वर मानती हैं, जिनके साथ माँ-बाप ब्याह कर विदा करते हैं।“
“सुनो रूपल! योगेश और तुम्हारे रिश्ते से मुझे रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ता, हर नामचीन लेखक में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, वह भावनाओं, संवेदनाओं से लबरेज होता है, लेखन में नाम, शोहरत और रुतबा पाने की चाह रखने वाली लड़की उनको सीढ़ी बनाती है, जब तक वह अपना मुकाम हासिल नहीं कर लेती तब तक वह जोंक की तरह उससे चिपकी रहती है, जब वह अपना मुकाम हासिल कर लेती है तब उसके लिए वह लेखक एक ठूंठ रह जाता है, जिस पर पंछी को बैठना गवारा नहीं होता, वह खाली ड्रम की तरह हो जाता है जिसमें से अब और सोमरस नहीं निकाला जा सकता।“- कहकर प्रभाकर चुप हो गया। रूपल ने सिर ऊपर उठाया और सवालिया नजरों से उसे देखनी लगी। थोड़ी देर ठहरकर प्रभाकर ने शब्दों को चबाते हुए आगे बोलना शुरू किया-“पूरे साहित्यिक हलके में कौन नहीं जानता कि तुम मेरी साहित्यिक बीवी हो, मेरी उत्तराधिकारी, और जब तुम्हें पता है कि सत्ता परिवर्तन होते ही मुझे राज्य-सभा से चुनकर संसद भेजा जाएगा, तब तुम कैसे एक मूर्ख प्रधान सेवक के पक्ष में लिखकर मेरे विरोधियों को हवा दे रही हो? तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी इन हरकतों का भविष्य में क्या असर होने वाला है?”
“भविष्य में क्या होगा ये तो मैं नहीं जानती लेकिन अगर मैं तुम्हारी नजरों से उतर गयी तो फिर हमारा साथ बने रहना कोई मैने नहीं रखता, वैसे भी मर्दों की एक आदत होती है- सारा दोष औरतों पर मड़ देने की, उसी आदत के हिसाब से मैं अब आपके लिये बेकार हो चली हूँ, आई मीन आउटडेटिड।“- रूपल मानो मन का सारा बवाल उडल देना चाहती थी।
“आई एम सारी, मुझे कोई हक नहीं बनता तुम्हारे ऊपर हक जमाने का, लाइफ के बारे में ज्यादा पर्सनल होना नहीं चाहता, ये तुम्हारी जिंदगी है जैसे मर्जी जियो।“- कहते हुए प्रभाकर उठ खड़ा हुआ।
वह नज़रें झुका लेती है और धीरे-धीरे कॉफी सिप करती रहती है।
-सन्दीप तोमर
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